आज खुशदीप भाई की इस पोस्ट पर कमाल की टिप्पंणियां देखने पढने को मिलीं ।खुशदीप भाई ने जैसे ही चिंतन करते हुए पूछा कि , हाय राम , कैसे होगा ब्लॉगिंग का उत्थान और उसमें लिखा कि ,
"यहां ऐसा भी है कि खुद अलोकतांत्रिक तरीके अपनाए जा रहे हैं और दूसरों को दुनिया जहां की नसीहतें दी जाती हैं...मैं जब से ब्लॉगिंग कर रहा हूं माडरेशन को मैने हमेशा दूसरों की अभिव्यक्ति को घोंटने का औज़ार माना है...अब तो टिप्पणी आप्शन बंद करने और ब्लॉग को आमंत्रित सदस्यों के लिए रिज़र्व रखने का भी ट्रेंड शुरू हो गया है..."
इस पर टिप्पणियां कमाल की आईं देखिए ,
ब्लॉगिंग में इस तरह की फीलिंग्स अक्सर सभी को कभी न कभी आती हैं . बेशक यहाँ सभी लेखक हैं , शुद्ध पाठक कोई नहीं . टिप्पणियों का मामला भी पेचीदा है . यदि कोई एक दो बार न आए तो लगता है या तो नाराज़ है या उपेक्षा कर रहा है .
लेकिन अनुभव के साथ कुछ बातें सीखना ज़रूरी है . जैसे :
* सप्ताह में एक या दो से ज्यादा पोस्ट लिख कर हम दूसरों पर अत्याचार ही करते हैं .
* टिप्पणी तभी देनी चाहिए जब आप पोस्ट में दिलचस्पी रखते हों .
* बिना पोस्ट पढ़े एक दो शब्द की टिप्पणी देकर हाज़िरी लगाना एक लेखक को शर्मिंदा करता है .
* लेखों और पोस्ट्स में विविधता ज़रूरी है ताकि आप टाइप्ड न हों और नीरसता न आये .
* यह ज़रूरी नहीं की आप हमेशा किसी से सहमत हों , या असहमत हों .
* जो लोग ब्लॉग पर कभी नहीं आते , उन्हें हम नहीं पढ़ते भले ही इ मेल करें या कोई और अनुरोध . ऐसे लोगों की कमी नहीं है . कईयों को तो हमने फोलो करना भी बंद कर दिया है .
* सामूहिक ब्लॉग्स हमें कभी पसंद नहीं आये .
अंत में यही कहूँगा की पसंद अपनी अपनी -- जो सही लगे , वही करना चाहिए .

पल में पानी सा बहे, छिन में बरसत आग!
भाई हते जो काल्हि तक,वे आज भये कुछ और,
रिश्ते यहां फ़िजूल हैं, मचा है कौआ रौर!
हड़बड़-हड़बड़ पोस्ट हैं, गड़बड़-सड़बड़ राय,
हड़बड़-सड़बड़ के दौर में,सब रहे यहां बड़बड़ाय!
हमें लगा सो कह दिया, अब आपौ कुछ कहिये भाय,
चर्चा करने को बैठ गये, आगे क्या लिक्खा जाय!
बाकी रचना जी ने जो आमंत्रित पाठकों मात्र के लिये अपना ब्लॉग कर दिया है वो कुछ जमा नहीं!

आप को भ्रम हैं की पाठक अग्रीगेटर से आते हैं , अग्रीगेटर का वजूद ब्लॉग से हैं नाकि ब्लॉग का अग्रीगेटर से .
अग्रीगेटर को अधिकार हैं किसी भी ब्लॉग को अपने स्क्रोल से हटाने का अगर क़ोई नियम भंग किया गया हो
आमंत्रित की परिभाषा अलग हैं भारत में निमन्त्रण का अर्थ हैं किसी को आमंत्रित करना , हम यहाँ आमंत्रित करने वाले से पूछते नहीं हैं जबकि बाकी जगह आमत्रित करने वाले से पहले पूछा जाता हैं "क्या आप आना पसंद करेगे , क्या आप आ सकते हैं " . जब उनसे सहमति मिल जाती हैं तब उनको निमन्त्रण भेजा जाता हैं .
ये एक सेट प्रोसेस हैं जो हमारे यहाँ अभी केवल कुछ वर्गों में प्रचलित हैं .
उसी आधार पर गूगल ने अपनी नीति बनाई हैं की जो ब्लॉग मालिक से कहे की "मुझे पढना हैं " ब्लॉग मालिक उसको निमन्त्रण भेज दे .
अब वो पढ़े जो अपने ईमेल आईडी मुझे दे .
मेरे रेगुलर पाठक जो टिपण्णी केवल इस वजह से नहीं करते हैं की मेरा साथ देने से बहस होगी खुश हैं क्युकी अब वो खुल कर बात कर सकेगे .
और हाँ मेरी बात को अपने पाठको तक रखने का थैंक्स
लिंक भी दे देते
और अगर हमारिवानी आपके पैसे से चलता हो तो सूचित कर दे में अपना ब्लॉग हटा लूंगी क्युकी हमारिवानी पर ब्लॉग जोडने के लिये मुझे ईमेल से निमंत्रण दिया गया था और मुझे आभास था की ये शाहनवाज का हैं .
- अच्छी पोस्ट! हम तो लिखते ही इसलिए हैं कि लोग इसे पढ़ें। कम से कम वे तो अवश्य ही पढ़ें जिन को लिखे से मिर्ची लगती हो। फिर अपनी सीईईईईई ...... टिप्पणी बक्से में जरूर छोड़ें। ये सब न हो तो ब्लागिंग नीरस हो जाएगी।Reply
- "कम से कम वे तो अवश्य ही पढ़ें जिन को लिखे से मिर्ची लगती हो। फिर अपनी सीईईईईई ...... टिप्पणी बक्से में जरूर छोड़ें। ये सब न हो तो ब्लागिंग नीरस हो जाएगी।" मैं भी दिनेश जी से सहमत हो लेता हूँ :)
और लोगों का देख देख कर मेरा भी सहमताने का मन हो आया .. :)ओह काफ़ी सारी टिप्पणियां हो गईं चलिए अब दूसरी पोस्ट की तरफ़ बढते हैं । पूजा आजकल अपनी लहरों के साथ बहुत रफ़्तार में पोस्टें लिख रही हैं और कमाल लिख रही हैं , अपनी एक हाल की पोस्ट में उन्होंने बहुत दिलचस्पी से , बोली एंड भाषा , माथापच्ची इन बिहारी , शीर्षक की पोस्ट में मस्त पटनैय्या अंदाज़ को सहेजते और उकरते हुए लिखा ,"एक दोस्त है मेरा...उसे बात करते हुए हर कुछ देर में ऐसा कुछ कहना ही पड़ता है...लात खाओगे...मार के ठीक कर देंगे...डीलिंग दोगे बेसी हमको...अपनी तरह बोक्का समझे हो...देंगे दू थाप...ढेर होसियार बूझते हो...तुमरा कुच्छो नहीं हो सकता...कुछ बुझाईबो करता है तुमको...और एक ठो सबसे ज्यादा मिस्युज्ड शब्द है...थेत्थर(verb-थेथरई, study of थेथर एंड इट्स कांटेक्स्ट: थेथरोलोजी). अब इसका अनुवाद करने में जान चले जाए आदमी का. वैसे ही एक शब्द है...चांय...अब चांय आदमी जब तक आपको दिखा नहीं दिया जाए आप समझ ही नहीं सकते है कि किस अर्थ में प्रयुक्त होता है. इसमें इनटोनेशन/उच्चारण बेहद जरूरी हिस्सा है...भाषा में चूँकि शब्दों के अर्थ तय होते हैं पर बोली में शब्द के कहने के माध्यम से आधा अर्थ उजागर होता है."इस पर आई प्रतिक्रियाएं देखिए"अनुवाद करने में जान चला जाये आदमी का" ई वाला बेस्ट है।Reply
आ देखो कैसा संजोग है की तुम्हारा माथा दुखा रहा है आ इधर हमारा गोड़ टटा रहा है :)
और एक बात जान लो हम पढ़ाई डिगरी से लेके नौकरी तक में आजतक "पंद्रह दूनी तीस तियाँ पैंतालीस चउका साठी पाँचे पचहत्तर छक्का नब्बे सात पिचोत्तर आठे बीसा नौ पैंतिसा झमकझमक्का डेढ़ सौ" से ही जोड़ घटाना करते हैं :) बिन सांस रोके :)
झमकझमक्का का माने मत पुछना :P हमको भी नहीं मालूम काहे बोला जाता है।कल किसी का पैर टटा रहा था, तो किसी का कपाड दुखा रहा था..Reply
मेरा तो पीठी कुरिया रहा था जिस वक्त तुम ये सब लिख रही थी.. :-|
BTW, हम बिहार में बोली जाने वाली तीनों भाषा कामचलाऊ बोल लेते हैं. मैथिलि, मगही और भोजपुरी. :-)स्मार्ड इंडियन ,जी ने अपनी पोस्ट , और बहुत ही कमाल की पोस्ट में प्रश्न किया , या कहा जाए कि बताया कि ब्राह्मण कौन ?"
तब फिर ब्राह्मण है कौन? जिसे आत्मा का बोध हो गया है, जो जन्म और कर्म के बन्धन से मुक्त है, वह ब्राह्मण है। ब्राह्मण को छः बन्धनों से मुक्त होना अनिवार्य है - क्षुधा, तृष्णा, शोक, भ्रम, बुढापा, और मृत्यु। एक ब्राह्मण को छः परिवर्तनों से भी मुक्त होना चाहिये जिनमें पहला ही जन्म है। इन सब बातों का अर्थ यही निकलता है कि जन्म और भेद में विश्वास रखने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता। ब्राह्मण वह है जिसकी इच्छा शेष नहीं रहती। सच्चिदानन्द की प्राप्ति (या खोज) ब्राह्मण की दिशा है। असंतुष्टि के रहते कोई ब्राह्मण नहीं रह सकता, भले ही उसका जन्म किसी भी परिवार में हुआ हो। ऐसा लगता है कि "संतोषः परमो धर्मः" ब्राह्मणत्व की एक ज़रूरी शर्त है।
आपका क्या विचार है? "जवाब आया , देखिए क्या ,सबसे पहले ये बताइये कि ये अली 'हसन' कौन हैं :)Reply
@ पोस्ट ,
मेरा ख्याल है कि भारतीय चिंतन परम्परा ने , समाज की गतिशीलता और समाज के विकास में तालमेल बिठाये रखने के लिए , तत्कालीन समय में जो अवधारणायें / जो विचार / जो दर्शन दिये हैं ! वो मूलतः आध्यात्मिकता के न्यूक्लियस पर घूमते हैं ! तब भौतिक जीवन को जीने के लघु सत्य के साथ आध्यात्मिकता जीवन के बड़े लक्ष्य ( विराट सत्य ) को साधने का यत्न करना अनिवार्य माना गया था ! इस हिसाब से देखा जाये तो उन दिनों के ज्ञान में पारलौकिकता , इहलौकिकता पर भारी थी / महत्वपूर्ण मानी गई थी ! उन दिनों सच्चे ज्ञान का मतलब ब्रह्म ज्ञान माना गया और जो इस ज्ञान को अपनी क्षमता / योग्यता से पा सके उसे ब्राह्मण हो जाना था !
'ब्रह्म' का आशय ईश्वर / मंत्र / यज्ञ / धार्मिकता तथा 'अण' का मतलब कहना है ! इस हिसाब से वे लोग , जो ब्रह्म के ज्ञान को पा सके और उसे दूसरों से कह सके , ब्राह्मण कहे गये ! यह एक संबोधन मात्र है जो हर ज्ञानी को दिया गया ! ज्ञानी के लिए ब्राह्मण शब्द / संबोधन पे ही आग्रह क्यों किया जाये ? ज्ञानी अपने आप में बेहतर संबोधन है , जिसके जन्मना होने की संभावना कम ही है या फिर पांडित्य से पंडित ! गौर करें तो ब्रह्म ज्ञान ही क्यों , गायन , वादन , नृत्य जैसे विधाओं में निष्णात को 'पंडित' संबोधन देते ही हैं भले ही उसकी जन्मना स्थिति चौरसिया की हो !
आज के दौर में देखें तो ज्ञान का न्यूक्लियस ब्रह्म नहीं है विज्ञान है तकनीक है पर इससे क्या फर्क पड़ता है , संबोधन बदलने की जरूरत भी क्या है ? ज्ञानी को पंडित कहिये या ब्राह्मण या फिर ज्ञानी ही !
ये सही है कि भारतीय दर्शन , वर्ण व्यवस्था के कार्मिक / दक्षता / योग्यता आधारित विभाजन के हिसाब से समाज को पर्याप्त गतिशील बनाये रखने का पक्षधर रहा है पर हमने इस दर्शन में अपनी अनुकूलता / स्वार्थ के अनुसार 'कर्मणा' की जगह 'जन्मना' को स्थापित कर दिया ! यह कुछ ऐसा है , जैसे कि एक बहती हुई नदी को ठहरे हुए पोखर में बदल दिया जाये ! विश्वामित्र का ब्रह्मऋषि होना और परशुराम का कर्म से क्षत्रिय हो जाना , तत्कालीन समाज दर्शन की कार्मिक तरलता के उदाहरण हैं ! एक बेहतर दर्शन जिसे उसके ही अनुयाइयों ने अपनी धड़कन के अनुरूप ढाल के बदहाल वर्शन (संस्करण) कर दिया है !
इस विषय पर आलेख लिखते हुए , आपको नहीं लगता कि आपने किसी कल कल बहते 'कर्मणा' हिमनद के स्थान पर किसी स्तब्ध / जड़वत / 'जन्मना' रह गये ताल तलैया पे हाथ डाल दिया है !
समाज चाहे जो भी हो , उसका धर्म चाहे जो भी हो , उसकी भाषा चाहे जो भी हो , उसका रंग रूप चाहे जो भी हो , उसका , ज्ञानी वर्ग उसमें पेश पेश दिखेगा ही ! आपको ब्राह्मण संबोधन अच्छा लगे तो ब्राह्मण कहिये !
तो आज के लिए इतना ही , मिलते हैं फ़िर टिप्पणियों के नए गुलदस्ते के साथ ..