जानने वाले ये बात बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि मैं स्वभाव से जुनूनी किस्म का व्यक्ति हूं और जिस काम को हाथ में लेता हूं मेरी पूरी कोशिश होती है कि अपनी सर्वाधिक क्षमता और उर्ज़ा उसमें लगा दूं , फ़िर चाहे वो किताबें पढना या ब्लॉग लिखना , दफ़्तर में सरकारी काम काज को निपटाना हो या छत पर पडी क्यारियों में पौधों फ़ूलों का हाल चाल लेना । नए साल में और कुछ नया हुआ या नहीं ये तो पता नहीं मगर यकायक यूं लगने लगा है मानो पढने लिखने का वो मौजू मूड फ़िर अचानक से जाग्रत हो चुका है । कभी एक साथ दर्ज़न भर ब्लॉग्स पर लगातार लिखते रहने , पढने और टिप्पणी करने वाला मेरे जैसा ब्लॉगर भी पिछले वर्ष बेहद उदासीन रहा था ,ब्लॉग लेखन से और पढने से भी ,बहुत बार की कोशिशों के बावजूद भी , मगर अब लगने लगा कि पुरानी पटरियों पे ही अपनी रेल दौडने लगी है । मुझे पोस्टों और पोस्टों की टिप्पणियों को पढने में जितना आनंद आता है उतना ही उन्हें सहेज़ने में भी आता है । एक लंबे अर्से तक अपने ब्लॉग झा जी कहिन , पर दो पंक्तियों में पोस्टों के लिंक संजोने का लुत्फ़ खूब उठाया था मैंने ,शायद आपको फ़िर वही रफ़्तार देखने को मिले , चलिए फ़िलहाल तो आपको कुछ चुनिंदा टिप्पणियां पढवाता हूं ……………………….
काव्य मंजूषा जी ने अपने ब्लॉग पर जैसे ही झंडे की कहानी सुनाई उस पर सलिल दादा ने टिप्पणी दी
कहीं से लिए गए हों... ये ऐसे तथ्य हैं जिन्हें पढ़ते हुए गर्व भी होता है और हर बार लगता है कुछ नया पढने को मिला। लेकिन यह पोस्ट अगर गणतंत्र दिवस के आस पास होती तो और अच्छा होता।
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
हिंदी ब्लॉगर रश्मि रवीज़ा अपनी पोस्टों में अक्सर हमसे आपसे और समाज से जुडे मुद्दों को निशाने पर लेती रही हैं । बहुत ही कमाल की पोस्ट में उन्होंने समाज की “कैसी कैसी रस्मों” का ज़िक्र किया तो कितनी दिलचस्प टिप्पणियां आईं देखिए
मैनें तो आजतक पत्नी को भी मेरे पैरों को छूने नहीं दिया है। शादी के तुरंत बाद एक रस्म हुई थी ससुराल में जिसमें वहां की एक काम वाली "नाईन" ने मेरे पैरों को धोया था। उनकी उम्र देखकर मेरे पैरों को हाथ लगाना मुझे आजतक शर्मिंदा कर देता है। थोडा विरोध भी किया, लेकिन बुजुर्ग ससुरालियों के सामने नहीं चली।
प्रणाम
मेरे को तो कई रस्में आज के समय अनुसार उचित नहीं लगतीं और इनका विरोध होना ही चाहिए ... मेरा तो मानना ये भी है की इसकी शुरुआत लड़के को ही करनी चाहिए क्योंकि आज भी हमारा समाज पुरुष समाज ही ज्यादा है और उन्हें ही आगे आना चाहिए ...
Shekhar SumanJanuary 30, 2014 at 12:37 AM
हमारे यहाँ तो नहीं धोये जाते, कबकी बंद हुयी ये रस्म... जाने किसने आवाज़ उठाई हो...
दीदी, मैंने अपने यहाँ कभी बारात आती नहीं देखी अब तक... अब दूर-दूर तक कोई बहन ही नहीं तो देखें कहाँ से.... हाँ अपने भाइयों की शादियों में ऐसी रस्म नहीं हुयी थी ये याद है अच्छे से....
वैसे बारात निकलने से पहले दूल्हा अपने मुंह से आम के पत्ते का डंठल काटता है और उसकी माँ को उन झूठे ठंठलों को खाना पड़ता है.... ये रसम बहुत अजीब लगी थी.... सोच कर रखा है कि ये रस्म नहीं होने दूँगा चाहे जो हो जाये...
वैसे आपकी बात से सहमत हूँ कि शादियों में दूल्हा-दुल्हन के साथ साथ उनके माता-पिता भी ऐसे धुन में रहते हैं कि आस-पास वाले जो भी रस्म याद दिलाते जाएँ वो होती रहती है... कोई मैनिफेस्टो तो बंता नहीं, जिस भी रिश्तेदार को जो रस्म याद आ गयी, करवा दिया....
इतनी 'बोकवास' रस्म का अंत होना ही चाहिए :)
वैसे मेरे घर में ये रस्म नहीं हुई क्योंकि 'मोका' ही नहीं मिला न !
लेकिन सोच रही हूँ, अगर ऐसा होता तो, 'मेरे इनके' पाँव, मेरे बाबा छूते, क्यों भला ? अब इतनी भी अच्छी शक्ल नहीं है इनकी :)
ये तो हुई मजाक की बात, लेकिन ये रस्म वाक़ई किसी भी हिसाब से सही नहीं है, बड़े-बुजुर्गों से अपने पाँव छुवाना ? अब इतनी तो अक्ल लड़कों में खुद ही होनी चाहिए कि वो खुद मना करें, अब हर बात उनको बतानी पड़ेगी क्या ? मेरी सास मेरी पाँव छुवे क्या मेरे पतिदेव बर्दाश्त कर लेंगे, नहीं न ?? तो फिर ?? अब ये हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपने घरों से इस वाहियात रस्म को ख़तम करने की शुरुआत करें । मेरे बेटे की शादी में ये रस्म पूरी तरह से बॉयकाट होगा, पक्की बात है ।
सोचालय पर फ़िलहाल सिसकी मिली और उस पर कुछ यूं टीपा गया
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deja vu.
ये घट चुका है तुम्हारे साथ पहले। फिर कब सम्हलोगे?
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वो अफसाना जिसे अंजाम तक पहुंचाना न हो मुमकिन...उसे एक फिलहाल तलक ठहराये हुये रखना?
तुम्हारे खत खुदा के दरवाजे तक पहुंचते हैं...कह दो एक रोज सारा कुछ...
पढ़ा है तुम्हें, जिया है तुम्हें, सोचा भी है दिन के कई पहर...हो ये भी तो सकता है कि कोई बस उतने भर के लिये था। तकलीफ जितनी उसने दी है, तुमने दामन फैलाये मांगी भी तो थी...वो जो खुदा बोल के बैठा है उपर। उससे कितने सवाल करोगे? रो रो के समंदर भर दो और फिर खाली दिल और दामन लिये उस किनारे से लौट आओ।
दोस्त, हम जन्म से अकेले हैं। उदास क्षणों में तो और भी। इतने दिनों से किसी को पढ़ते रहने पर कुछ हक बन जाता है।
सुनो, एक गीत सुनो...
धारा जो बहती है, मिलके रहती है
बहती धारा बन जा...फिर दुनिया से बोल
http://www.youtube.com/watch?v=pGYjHQbV1KE
सुनो, मुस्कुरा दो जरा। तुम्हारी सिसकी चुभती है बहुत।
शिखा जी ने अपनी पोस्ट में जिद्दी जिंदगी का ज़िक्र किया तो उसपर कहा गया
"जिंदगी बहुत जिद्दी और एगोइस्ट किस्म की होती है. उसे ज़रा सा लाइटली लेना शुरू करो तो तुरंत पैंतरा बदल लेती है."
ज्यादा सीरियसली ले लो तो कौन सा रहम खा लेती है ... पैंतरा तो तब भी बदलती ही है न ... क्यों ??
एक थ्रिलर है ज़िन्दगी... जिसके हर मोड़ पर कुछ न कुछ हमें हैरान कर जाता है.. यही इसकी ख़ासियत भी है। कितनी बोरियत भरी होती ज़िन्दगी अगर वह टिपिकल बॉलीवुड स्टाइल की फिल्म होती.. जिसका अंत हर कोई प्रेडिक्ट कर लेता है।
रचना त्रिपाठी अपनी इस पोस्ट में कमाउ बीवियों के लिए कुछ कह बैठीं , प्रतिक्रियाएं देखिए
युवक की सोच तरस खाने लायक ही है।
समय बदल रहा है। सोच भी बदल रही है। आने वाले समय और बेहतर होगी सोच।
अच्छा लेख !
वैसे
बुनियादी तौर पर हमारा समाज स्त्रियों के अर्थोपार्जन के ख़िलाफ़ नहीं रहा है. ऐसा होता तो वेदों में तमाम स्त्री ऋषि नहीं होतीं और न बाद के दौर में गार्गी, मैत्रेयी विदुषियों का ही उल्लेख मिलता. लेकिन पीछे का क़रीब दो हज़ार साल का विदेशी आक्रमणों का दौर पहले हमें मजबूर और बाद में कूढमगज बनाता गया. ये वही लोग हैं, जो अभी तक 2000 हज़ार साल पीछे ही अटके हुए हैं. उससे आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं हैं. क्योंकि इनमें आत्मविश्वास नहीं है.
कमाऊ स्त्रियां पुरुष की बराबरी का दावा करती हैं -इगो क्लैस होते रहते हैं -
और जब पुरुष निठल्ला हो और उसकी स्त्री कमाऊ तब तो वह पुरुष बेचारा तो भीगी बिल्ली हो रहता है -हींन भावना से ग्रस्त भी
हाँ पुरुष और स्त्री दोनों का स्तर बराबर हो तो फिर हींन भावना नहीं आती किसी में भी।
श्रोत=स्रोत
अब समाज तेजी से बदल रहा है, लेकिन फिर भी यह मानसिकता कहीं दिखायी दे ही जाती है। धीरे-धीरे इसमें भी बदलाव आ जाएगा।
डॉ टी एस दराल जी ने अपने ब्लॉग अंतर्मंथन पर , अपनी बालकनी पर आ बैठे कबूतर को ये पोस्ट समर्पित की तो उस एक रोचक प्रतिक्रिया ये आई ,
मुझे कबूतर कभी कभी थोड़े स्टुपिड से लगते हैं....खोजबीन करती हूँ उनके कुछ अटपटे/अनमने व्यवहार पर...
हालांकि trained किये जा सकते है ये,इसलिए stupid होते तो न होंगे....
nice click....nice post as always!!
regards
anu
अनु जी , सफेद कबूतर ट्रेन किये जा सकते हैं . लेकिन जंगली कबूतर तो हमे भी स्टुपिड ही लगते हैं .
सत्यार्थमित्र जी ने अपनी पोस्ट में एक विचलित करने वाली रिपोर्ट प्रस्तुत की तो उस पर ये टिप्पणियां आईं
प्राथमिक स्तर पर बच्चों को फेल ना करने का निर्णय भी इस शोचनीय स्थिति को और गंभीर बनाता है ! यह बच्चों व अध्यापकों को अकर्मण्यता के लिये प्रेरित करता है ! यह निर्णय केवल साक्षरों की संख्या के आंकड़ों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाने और अपनी पीठ थपथपाने जैसा है ! वे वास्तव में साक्षर हुए भी या नहीं इसकी चिंता किसीको नहीं है ! विचारणीय आलेख !
सिद्धार्थ जी,
अभी कम से कम आपको आँकड़े तो मिल रहे हैं, अगर यही हाल रहा तो सही आँकड़े बताने वाले भी नहीं मिलेंगे।
मेरी माँ स्कूल इंस्पेक्ट्रेस थीं, उनके साथ कई स्कूलों में जाने का मौका मिला था । मैंने फर्स्ट हैण्ड सो कॉल्ड शिक्षकों के हाथों शिक्षा की दुर्गति होते देखी है.।
लीजिये पेश है एक विडिओ जो बिहार के एक स्कूल का है, और ऐसे शिक्षक/शिक्षिका आपको अनगिनत स्कूलों में थोक के भाव में मिल जायेंगे।
अभी दो महीने पहले एक आँगन-वाड़ी स्कूल में जाने का मौका मिला, हैरान हो गई देख कर, सरकारी पैसे का दुरूपयोग कैसे-कैसे किया जाता है ।
http://www.youtube.com/watch?v=nafddfj2mXQ
यह भी खूब रही ... लगे रहिए ... टैण टैणेन :)
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शिवम भाई , बहुत बहुत आभार आपका
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