आम तौर पर ब्लॉग पाठक ,पोस्ट पढते हैं , बहुत नहीं भी पढते हैं , मगर अब हम जैसे ब्लॉग दीवानों को कौन समझाए और क्यूं समझाए , शायद पोस्ट तो पोस्ट टिप्पणियों तक को न सिर्फ़ पढने बल्कि अलग अलग पन्नों पर सहेज़ने का ये जुनून ही है कि ब्लॉगिंग की दुनिया में सात साल कब पूरे हो गए पता ही नहीं चला । चलिए छोडिए ये बातें फ़िर कभी , फ़िलहाल तो आपको दिलचस्प पोस्टों में की गई कुछ कमाल की टिप्पणियां पढवाता हूं ……………..
अनूप शुक्ल जी के ताज़ा पोस्ट पर टीपते हुए एक "पाठक" नहीं नहीं एक" झा" कहते हैं
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sanjay jha
वाओ…………
@ ’जरको’…………….क्या कहिये’ ???
@पहले पागल भीड़ में शोला बयानी बेचना,
फ़िर जलते हुये शहरों में पानी बेचना।……..मार डाला?????
प्रणाम.
और दूसरे पाठक कहते हैं
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आज आपके व्यंग्य की मिसाइल एकदम सही ठिकाने पर लगी है- वाऊ।
बहुत दिन बाद इत्ता जोरदार पढ़ने को मिला आपके की बोर्ड से या हो सकता है यही मुझे अधिक अच्छा लगा हो !
अपनी इस पोस्ट पर ब्लॉगर रचना एक तीखा सवाल उठाते हुई पूछती हैं कि क्या बलात्कारी को सज़ा ऐसे भी दी जाती है
टिप्पणी आती है
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कैसी बेहूदगी है ये ? किसे सजा दी है उन्होंने ?
अमूमन सारी जातीय पंचायते पुरुष प्रभुत्व वाली होती हैं उनमें स्त्रियों की भागीदारी लगभग शून्य होती है अस्तु इस तरह के फैसले एक विशिष्ट तरह की मानसिकता का संकेत देते हैं ! इन एकपक्षीय एकांगी अतार्किक निर्णयों को न्याय नहीं कहा जा सकता !
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अली जी आप को क्या लगता हैं इस बेहूदगी के पीछे कारण क्या हैं , किस सोच / मानसिकता के तहत ये निर्णय लिया गया होगा। एक इंग्लिश ब्लॉग पोस्ट पर बड़े सारे कारण लोगो ने इंगित किये हैं मै चाहती थी हम भी कुछ कारण इंगित करे बाद में , उस पोस्ट का लिंक भी दूंगी
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काजल भाई के इस कार्टून पर
कार्टून :- मर्द को दर्द नहीं होता ?
पर टीपते हुए ताउ फ़रमाते हैं :
ताऊ रामपुरियाअकेले डंडे से ये भी क्या कर लेगा? आखिर इनके भी बाल बच्चे हैं.
रामराम.
इस पर टीपते हुए पाठक क्या कहते हैं देखिए
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जिन सांसों में समाई थी यौवन की खुशबु
अब गार्लिक पर्ल्स की गंध आती है ।
क्या यार ..
आशिकी का क्या होगा ?
कुशवंशSeptember 08, 2013 11:39 AM
बेहतरीन कहा आपने
वही
" ये देखो हमारा शादी का फोटो ...
हूँ .......तुमसे मच्छर ढूँढने को कहा था ना "
वेबनर और वेब -नारी होना एक बात है सम्मेलनी होना दूसरी। जैसे हर कवि मंचीय नहीं होता वैसे ही हर ब्लोगर सम्मेलनीय नहीं होता है। अरविन्द भाई साहब की तारीफ़ करनी पड़ेगी-सबको आगे लाते हैं सबकी ख़ुशी में नांचते हैं सतो गुण बढ़ा रहता है इनमें इसीलिए दूसरे की प्रशंसा भी कर लेते हैं। हम एक मर्तबा जब मुंबई में थे इन्होनें ने हमें भी नै दिल्ली आने के लिए न्योता था अंतर -राष्ट्रीय ब्लागरी बैठक में। हमारे अन्दर वराह भगवान् का अंश ज्यादा रहता है (बोले तो तमोगुण जो आलस्य और प्रमाद का अधिष्ठाता है ),मन का आलस्य छाया रहा हम नहीं गए सो नहीं गए। वैसे तन से भी थोड़ा विकलांगई हैं। दस टंटे हैं अमरीका आते हैं तो हमेशा वील चेयर लेते हैं। अंग्रेजी संडास चाहिए हर जगह। बस कई किस्म के अवरोध आ जाते हैं। यात्रा कई मर्तबा दुष्कर लगती है जहाज हवाई में भी तन जुड़ जाता है २० घंटा उड़ान तौबा तौबा।
Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता
बहुत अच्छी पहलहै यह संगोष्ठी।
लेकिन यह प्रेशराइएशन कि जो नही जा सकते वे या तो घमंडी हैं /या उनमे आत्मविश्वास की कमी है /या वे संजीदा नही हैं /आदि आदि मुझे ठीक नही लगता।
यदि किसिमे क्रियेटिविटी है और वह ब्लॉग लिख रहा / रही है तो यह उसका अपना निर्णय है। यदि वह संगोष्ठी में भाग ले सकता / सकती / भाग लेना चाहता / चाहती है / नहीं ले सकता / सकती.... यह हर व्यक्ति का व्यक्तिगत निर्णय है। हम में से अधिकाँश यहाँ या तो होबी के रूप में लिखते हैं या फिर वे महसूस करते हैं कि उनके पास कुछ है जिसे साझा करना उन्हें पसंद है। फिर कुछ लोग अपने राजनैतिक उद्देश्यों या अपनी महत्वाकांक्षाओं से। इनमे से किसी पर भी दबाव डालना कि उन्हें संगोष्ठी (यों) में सम्मिलित होना ही चाहिए / यह उनका कर्त्तव्य जैसा है - यह उचित नहीं।
मेरे विचार में सिद्धार्थ जी के प्रयास प्रशंसनीय हैं ।लेकिन दबाव नहीं होना चाहिए किसी पर भी। सबकी अपनी जिंदगी और अपनी व्यस्तताएं होती हैं। कोई अपने आप को व्यस्त कह कर आपका अपमान नही करना चाहता हो और modestlyअपने आप को कम और आपको बड़ा कह कर सम्मान पूर्वक आपको मना किया हो तो उसे यहाँ सार्वजनिक मंच पर उस बात को लेकर व्यंग्य मुझे उचित नहीं लगता।
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सहम्त हूँ आपसे। लेकिन मुझे नहीं लगता कि कोई जबरिया दबाव बना रहा है। :)
इसे आप यूँ समझिए कि हम जैसे लोग कुछ ज्यादा उत्साही हो गये हैं इस माध्यम के प्रति तो उन्हें दूसरों की ‘साधारण रुचि’ या अन्यमनस्कता देखकर थोड़ी झुँझलाहट हो सकती है। मैं इसमें घमंड या आत्मविश्वास की कमी जैसी बात नहीं देखता। आदरणीय अरविंद जी थोड़ा भावुकतावश सेंटियाकर ऐसा कह गये होंगे वर्ना िस आभासी दुनिया में किसी का क्या अख्तियार है।
मुझे तो एल.आई.सी. की टैग लाइन याद आती है- “बीमा आग्रह की विषय वस्तु है” बावजूद इसके कि बीमा कराने में आपका ही लाभ होगा कंपनी आपसे बार-बार आग्रह करती है। :)
अब ये मत कहिएगा कि इसमें कंपनी का लाभ ज्यादा है क्योंकि ब्लॉगगोष्ठी से किसी को कोई निजी लाभ नहीं है। -
सहम्त = सहमत
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@शिल्पा जी की टिप्पणियाँ मुझे जवाब देने को बाध्य करते हैं -
मैंने महज हिन्दी अंग्रेजी ब्लागरों की तुलना की थी बस :-)
सारी मजबूरियाँ , छद्म आत्मसम्मान,गलदश्रु और घरघुसपना केवल हिन्दी ब्लागरों के साथ क्यों ? -
Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता
:)
:)
@@ सिद्धार्थ जी - मैं यह नहीं कह रही कि इसमें आयोजकों का कोई भी फायदा है - लेकिन यह कह रही हूँ कि आवश्यक नहीं कि हर व्यक्ति जो ब्लॉग्गिंग कर रहा हो वह संगोष्ठी में शामिल होने को अपना कर्त्तव्य माने - भले ही यह उसके लिए फायदेमंद हो तब भी :)
@@ मिश्र सर - बिलकुल ऐसा नहीं है कि यह सब सिर्फ हिंदी ब्लोग्गेर्स के साथ ही होता हो - लेकिन डिग्री अधिक हो सकती है । जैसे मैं अपना ही उदाहरण लूं तो मैं ब्लोगिंग एक हॉबी की तरह करती हूँ - ब्लॉग पर भी जितना लिखना चाहती हूँ जितना पढना चाहती हूँ - उतने के लिए भी समय नहीं पूरा पड़ता - संगोष्ठी में जाना तो खैर मेरे लिए संभव ही नहीं। और ऐसी ही स्थिति कई और लोगों के साथ हो सकती है। इस तरह के दबाव मुझे अनुचित लगते हैं।
साहब , हमें तो आपका ' निवेदन' सबसे प्रभावशाली लगा, हमारे हिसाब से आपकी रचनाओं का इससे अच्छा वर्णन नहीं किया जा सकता !
रही बात रचना के पात्र की, तो इनका नाम पहेली बार ही सुना था फिर मालूम पड़ा की फिल्म ' एस्केप फ्रॉम तालिबान ' इन्ही के उपन्यास से प्रेरित थी . उपरवाली इनकी आत्मा को शांति और हिंसा फैलाने वालों को सद्बुद्धि दे ...
लिखते रहिये .
ब्लॉग जगत के अपने पांडे जी यानि प्रवीण पांडे जी पूछते हैं कि , अगला एप्पल कैसा हो , हमसे पूछते तो हम तो कहते , जैसा भी हो , ससुरा प्याज जैसा न हो , फ़िर एप्पल का एप्पल होने का क्या फ़ायदा , मगर इस पर पाठकों की राय ये रही
निश्चय ही मोबाइल व टैबलेट जगत में विगत कुछ वर्षों से कड़ी व्यावसायिक प्रतियोगिता के फलस्वरूप इनके विभिन्न ब्रांड के प्रोडक्ट, एप्पल या सैमसंग या एचटीसी या कोई अन्य, सभी में चमत्कारी व उच्चकोटि की गुणवत्ता व उपभोक्ता की सहूलियत में सुधार हुआ है, जो निश्चय ही अंततः उपभोक्ताओं हेतु सुखद व फायदेमंद है। मेरे समझ में तो अब सभी प्रांतों के लिए ही आगे की और सबसे कठिन चुनौती है बैटरी की ड्यूरेबिलिटी व प्रोडक्ट की वीयर व टीयर क्षमता,जैसे उपकरण के अचानक फर्श पर गिर जाने अथवा इसके दुर्घटना वश पानी में गिर जाने पर भी न्यूनतम हानि की अंदरूनी क्षमता ताकि मेरे जैसे लापरवाह उपभोक्ता, जो अपने उपकरण की हैंडलिंग में थोड़ा लापरवाह हैं, भी बेझिझक उपयोग कर सकें। मेरी समझ में नोकिया का अपने उपकरणों में इन पक्ष की मजबूती का अनुभव, नये प्रोडक्ट के डिजाइन सुधार में निश्चय ही काफी उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
ये तो चोर के घर मोर हो गया जी
जवाब देंहटाएंयह बढ़िया है। हिंद युग्म ने भी ऐसा प्रयास किया था। जहाँ वह श्रेष्ठ कविता के साथ श्रेष्ठ पाठका का भी चुनाव करता था। मैने भी एक ब्लॉग शुरू किया था। समयाभाव के कारण उसे जारी नही रख पा रहा हूँ। पाठकों की टिप्पणियाँ मायने रखती हैं। इनको सहेजना अच्छा है। यह वैसा ही है जैसे हम किसी पुस्तक की समीक्षा, पत्रिका में आई पाठकों की प्रतिक्रिया को पढ़ते हैं।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया देवेंद्र भाई , बहुत दिनों से ये थोडा अनियमित सा हो गया था अब इसे नियमित करूंगा ।
हटाएंमार डाला रे !
जवाब देंहटाएंहा हा हा हा शुक्रिया सर :)
हटाएंहा हा मज़ा आया जी .. टिप्पणियों पे प्रति-टिप्पणियाँ ... ये भी एक खेल है ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दिगम्बर जी
हटाएंचलिए आप आए तो, नहीं तो सूना हो गया था।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अजित गुप्ता जी , अब नियमित रहने का प्रयास करूंगा
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