रविवार, 23 फ़रवरी 2014

वाह टिप्पणियां , आह टिप्पणियां ………

 

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पोस्टों और टिप्पणियों को सहेज़ने में मुझे विशेष आनंद आता है इसलिए समय मिलते ही मैं कभी पोस्ट लिंक्स को संजोने के बहाने तो कभी पाठकों की टिप्पणियों को यहां इस पन्ने पर टिकाने के बहाने उन्हें संभाल लिया करता हूं । पिछले दिनों पोस्टों पर आई कुछ चुनिंदा और रोचक टिप्पणियां ये रहीं देखिए

रेल बाबू की इस डागदरी वाली पोस्ट पे आत्मा जी बेचैन होकर बोले

  • देवेन्द्र पाण्डेय

    आपका यह प्रयास प्रशंसनीय है। कुछ ज्ञान बढ़ा, कुछ अगली कड़ियों में बढ़ने की उम्मीद जगी है।
    बचपन से ऐसे माहौल में रहा हूँ कि ये सब बातें कानों में पड़ी हैं मगर कभी ध्यान से न सुना न सुनने के बाद स्मरण ही रहा। बचपन से ही आयुर्वेद एक दीर्घसुत्री इलाज की तरह लगा। बीमार हुआ तो वैद्य जी बोलते.. 7 दिन के लिए भोजन बंद! अंग्रेजी डाक्टर चार टेबलेट देता और बोलता..सब खाओ! अब आप ही बताइये किसके प्रति छवि अच्छी बनेगी? दवा बनाना भी धैर्य और झंझट का काम है। एक लीटर पानी को एक छोटी कटोरी होने तक उबालते रहो..।
    ...अब आपके कारण रूचि जग जाय तो धन्य भाग।

    1. प्रवीण पाण्डेय

      आठ कटोरिया जल आयुर्वेद को बनारस की देन है, ८ भाग जल जब उबलते उबलते एक भाग हो जाये तो उसमें अद्भुत औषधीय गुण होते हैं और तेज ज्वर में काम आता है। ज्वर के समय भोजन करना है कि नहीं, इसका विस्तृत वर्णन वाग्भट्ट ने किया है। ज्वर में ऊष्मा होती है और वह पित्त भड़कने से होता है। पित्त भड़कने में भोजन करते रहेंगे तो निदान अव्यवस्थित और दीर्घकालिक हो जायेगा। रोग को जड़ से उखाड़ना है, और बिना साइड इफेक्ट के तो उपवास उचित है। साथ में यह भी बताया गया है कि निर्जल कभी न रहें, पानी पीते रहें, वह पदार्थ खायें जिसमें पित्त का उपयोग न्यूनतम हो। इतना खायें कि निर्बल न हो जायें, क्योंकि रोग ले लड़ने के लिये शक्ति चाहिये। टैबलेट प्रभाव दबा देती है, मूल में नहीं जाती है, यही अन्तर है जो तात्कालिक और दीर्घकालिक है।

    2. देवेन्द्र पाण्डेय

      हम्म..

     

     

    आगे बढे तो देखा अमित जी अपने ब्लॉग पर कबूतर फ़ोन लगाए बैठे हैं , नंबर डायल और डिस्पले करते जिन्होंने पाया उन्होंने कहा

     
    1. शिवम् मिश्रा

      बाकी बातें बाद मे .... सब से पहले तो यह बताइये आप ने भाभी जी का मोबाइल उठाया ही काहे ... अच्छा उठाया तो उठाया ... पूरी जासूसी भी कर ली ... अच्छा जासूसी की तो की ... उस का फोटो भी ले लिए ... अच्छा फोटो लिए तो लिए ... उस को पोस्ट पर भी लगा दिया ... जे बात ठीक नहीं है !!

      प्रत्‍युत्तर दें

    2. Onkar

      बिल्कुल सही कहा

       

    3. Abhilekh Dwivedi

      हाहाहा! बहुत सही बात है और कई लोग ऐसा करते भी है। अच्छा लगा पढ़ कर!


    मास्टरनी पांडे ने जैसे ही दिल्ली की सियासी उठापटक को निशाना बनाते हुए अपनी पोस्ट पर खरी खरी सुनाई , उस पर आई प्रतिक्रियाएं देख कर ही पता लग गया कि तीर सही निशानों पर लगा है ।

  •  

  • Raj Shukla

    शेफाली जी,
    शब्द नहीं हैं मेरे पास, जो आपने लिखा है बिलकुल वही मेरे अन्दर चल रहा है, बेहद सुंदर प्रस्तुति और करारा जवाब दिया है आपने उस भगौड़े और कायर केजरीवाल को जिसने सोचा की वो लोगों के लिए लड़ेगा और हम उसे लड़ने देंगे और खुलेआम आम आदमी की जीने देंगे, उसको कोई हक नहीं है हमारी रोज़मर्रा की तकलीफों को राष्ट्रिय मुद्दा बनाने का... क्या सोचा उसने की हम विरोध नहीं कारेंगे? क्यों नहीं करेंगे? जरूर करेंगे...और जबतक उसको भ्रष्टाचारी, भगौड़ा और देशद्रोही साबित नहीं कर देंगे तबतक चैन से नहीं बैठेंगे।

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  • jeewan rawat

    ये एक धोखा है .
    हमको ऐसा CM नहीं चाहिए जो आरोप लगाये और भाग जाये.
    आरोप आप पर भी लगे हैं और आपने भी उनका जवाब नहीं दिया .
    आपको ५ साल सरकार चलने का मौका मिला था आप लोकसभा देखने निकल पड़े .
    क्या जनलोकपाल अगले 2 महीनो में तरीके से नही आ सकता था .?
    और भी काम थे केजरीवाल जी .
    आप मानो न मानो आप भले ही बाते आम आदमी की करते हो पर आपकी नीयत भी अच्छी नहीं है करम भी अच्छे नहीं हैं.
    आपने ईमानदारी और बेमानी का सर्टिफिकेट देने की दुकान खोल रखी है.
    आपके पास साबुत हैं तो जैल क्यों नही भिजवाते इन लोगो को.
    या ऐसे आरोप आप पर भी लग सकते हैं की आपने जो सब्सिडी के नाम पे बिजली कम्पनियों को पैसा दिया है उसमे ५०% कमीशन आपका भी है.
    आप साबित करो ये गलत है.
    आप पर से आम जनता का ही भरोसा उठ गया है. जिसके नाम की आप राजनीती करते हो.

  •  

    विवेक रस्तोगी जी अपने घर परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने में मशगूल होते हुए भी आसपास के प्रेम कपल पर आंखों का डंडा फ़टकारते हुए जैसे ही इस पोस्ट पर नूमदार हुए,
    झट्ट से पीडी ने टीपते हुए कहा

     

  • PD

    मोरल पुलिसिंग के मैं सख्त विरोध में हूँ. जब तक भारतीय संविधान के मुताबिक उनकी हरकतें अश्लीलता के अंतर्गत नहीं आता है तब तक उन्हें सड़कों पर प्रेम करने का उतना ही अधिकार है जितना मुझे या आपको सड़कों पर दोस्तों के साथ हंसी ठठ्ठा करने का..

  •  

     

    विख्यात पत्रकार ब्लॉगर रविश कुमार NDTV प्राइम टाईम वाले आज अपने कस्बे में अरविंद केजरीवाल की सरकार के जाने के बाद के हालात और अनुभवों पर साझा की गई बातों पर प्रतिक्रिया देते हुए पाठकों ने अपने बहुत सारे अनुभव साझा किए हैं



    Anita Jha

    रवीश क्या इसके लिए हम सब कही न कही जिम्मेदार नहीं है | मुझे तो लगा मै हु और सच कहु तो ट्विटर भी इसलिए ज्वाइन किया था | पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि एक चकविहू रचा जा रहा था AAP के खिलाफ | पर हो सकता है शायद ये मेरी सोच हो कही न कही मै अपने आप को AAP का ब्लाइंड supporter मानती हु | मेरे घर में लोग एहि कहते है | पर ट्विटर पर तो लोगो का जुलुम है आप के पक्ष मै | और वो आप आप हो गया |
    अभी कुछ दिन पहले लखनऊ शताब्दी मै थी | फर्स्ट क्लास डब्बे मै | कही न कही हम इस डब्बे के लोगो को सभ्य और सुशिल मानते है | एक आदमी ने बात शुरू की एक पार्टी को लेकर सब उसी के साथ हो लिए | सोचा बोलना बेवक़ूभी है जिसका जो विचार है वो रहेगा ही क्यों अपना माथा खपाऊ | पर कुछ देर बाद नहीं रहा गया जब एक आदमी ने ये दलील दी की अरविन्द केजरीवार सोमनाथ भारती को इसलिए नहीं हटा रहे है की उसने अरिवंद का एक विडिओ बना रक्खा है और उससे उसे बल्कमैल कर रहा है | अरविन्द उसे कभी हटा ही नहीं सकता | अपने आप को रोक न सकी पूछ ही डाला आपको ये खबर कहा से मिली | बोले व्हाट्सप्प पर आया था | मेरा पास भी सुबह से शाम व्हाट्सप्प से एसी मेसेज आते है पर मै तो ऐसा नहीं मानती | अपनी बात को रखती गई दलील देती गयी | जब बोलना सुरु कर ही दिया था तो रुकना क्या | पर देखा लोग मुझे सुन रहे थे और कुछ धीरे धीरे मेरी बातो को मनाने भी लगे | मेरा स्टेशन बीच मै था | कहा अब उतरना है - देखा सबकी निगाह मेरी तरफ थी | एक बुजुर्ग से आदमी ने जो की इस दौरान बिल्कुक चुप था ने कहा - मम आप उतर रही है अच्छा लगा आपको सुनकर | एक अजीब सी संतुस्ठी मिली | हमेशा ट्रैन से चुप चाप उतर जाती थी पहली बार सबको बाय बोला और जबाब भी मिला | उस दिन से जब मौका मिलता है बोलती हु | किसी पार्टी के खिलाफ नहीं पर अपने कुछ तथयो पर |
    मै जहाँ काम करती हु उसके आज कल के प्रेसिडेंट एक बहुत ही बड़े अख़बार के मालिक है |उनकी बातो में AAP की खिलाफत बिलकुल झलकती है | बुरा नहीं लगता है क्योकि लोकतंत्र है सबको अपनी बात रखने का अधिकार है | पर बुरा तब लगता है जब वो बोलते है और लोग उनकी हा में हा मिलने के लिए कुछ भी उलूल जलूल तथेय पेश कर देते है | पिछली मीटिंग में जब सुनते सुनते नहीं रहा गया तो मैने अपने बात की शुरुआत मजाकिया तरीके से की , सर में तो आप की ब्लाइंड सुप्पोर्तेर हु !!!! अरविन्द केजरीवाल कुछ भी करता है मुझे अच्छा लगता है | एकदम गुस्से में आ गए और बोले आप जैसे लोग ही स्टेबल गवर्मेंट नहीं बनने देंगे | और फिर वही हा में हा | क्या ये स्टेबल गवर्मेंट इतना इम्पोर्टेन्ट है की इसके लिए हम अपने विचार से अलग हो जाये ? अभी सब जगह एक स्टेबल गवर्मेंट का नारा चल रहा है | और ये में अपने पर्सनल एक्सपीरियंस से कह रही हु | जिन लोगो की मै बात कर रही हु वो उच्च मधयम वर्ग या उच्च वर्ग के है | इनका असर मधयम वर पर साफ पड़ रहा है | कहते है न सौ बार बोला झूठ सच हो जाता है |
    अभी एक वोटर अवेयरनेस ड्राइव चलाया था | वोट डालने के लिए | लोग अजीब से सवाल करते थे | हम किसको वोट डाले ? आप अपनी समझ से डाले | ये शायद वो लोग थे जो भाषा और भाषण के प्रभाव में आ गए थे | moneyऔर mascle पॉवर के नहीं | अखबार पढ़े, टी वि देखिये, अपने आस पास की जानकारी रखे | पर क्या मेरा जवाव सही था ! बिलकुल नहीं | मीडिया के उस चेहरे को भी जानती हु जो मेकअप के पीछे बहुत ही घिनौना है | लोग कहते हम अपना वोट waste नहीं करना चाहते है | लोगो की नज़रो मै हारने वाली पार्टी को वोट नहीं देना चाहिए | जवाव तो देती की वोट waste नहीं होते है | हवा के साथ चलना हमेशा सही नहीं होता है | पर जवाव से खुद को संतुस्ठ नहीं कर पाती थी |
    पर सही कहु तो अरविन्द की स्ट्रेटेजी अच्छी लग रही है | हेड ऑन कोलिसिओं वाली | ईमानदार होना जितना जरुरी है उतना ही ईमानदार दिखाना | शायद वक्त के सात aap इसमे निपुण हो जायेगे | जो भी हो अपनी बात को रख कर मे खुश हु | वैसे सुबह साढ़े नौ बजे से कम्पुटुर पर हु अभी ख़तम हुआ यह लिंक मेसेज के लिए तो ठीक है पर लम्बे लेख के लिए नहीं | काफी गलती होती है जिसे सुधरे मे वक्त लगता है | अगर आप इसमे कोई सुझाव दे सके तो कृपा होगी |
    आज छुट्टी है पर पता नहीं ऐसा लगता है छुट्टी मर्दो की लिए है | महिलो को तो इस दिन डबल काम | पुरे हफ्ते का काम इस दिन पर जो छोड़ देते है | समय मिला तो ब्लॉग पर भी आउंगी | लिखते रहिये पढ़ कर अच्छा लगता है |

     

     

    जानकीपुल पर हिंदी पुस्तकों के बैस्ट सेलर बनने और न बन पाने को लेकर, इस पोस्ट में  खडी की गई बहस पर आई टिप्पणियां बडी ही कांटे की लगी



     
    1. Sharad Shrivastav

      मुझे लगता है प्रभात जी ये हमारे पूर्वजो की देन है, वो ब्राह्मण शूद्र मे फंसे रहे, स्वर्ण दलित करते रहे। आज की साहित्यिक दुनिया मे गंभीर साहित्य, पोपुलर साहित्य का अंतर आ गया। लेकिन भाव वही है। वही भेदभाव, वही छुआछूत, जैसा आपने परसों कहा की गभीर साहित्य लेखक भी हैं सीक्रेट एडमायरर पाठक साहब के । सबके सामने कबूल नहीं कर सकते, इज्ज़त घटती है। हवाई जहाज मे अंग्रेजी नॉवल पढ़ते हैं। ताकि आसपास के सहयात्री हँसे नहीं। लेखक बनने से पहले इन सभी ने खूब पढ़ा लिखा होगा, क्या काम आया वो सब। ब्राहमनवाद से तो दूर आ गए लेकिन नए किस्म के ब्राहम्ण्वाद मे फंस गए। मैं ऊंचा तू नीचा। खून वही है, जज़्बात वहीं हैं । इन्हें कोई नहीं बदल सकता शरद

      Reply

    2. satyanarayan

      इस बात पर काफ़ी चर्चे होते रहे हैं कि हमारे समाज में समकालीन स्तरीय साहित्य का पाठक वर्ग काफ़ी सिमट गया है। आज भी हिन्दी में सबसे अधिक प्रेमचन्द पढ़े जाते हैं। कामतानाथ, रवीन्द्र कालिया, मैत्रेयी पुष्पा, नासिरा शर्मा, अलका सरावगी, संजीव, शिवमूर्ति, उदय प्रकाश आदि के चर्चित उपन्यासों के पाठक वर्ग का दायरा भी काफ़ी छोटा है। हर सामाजिक-सांस्कृतिक समस्या की तरह इस समस्या के भी कई कारण हैं। किताबों की ऊँची क़ीमतें, लाइब्रेरी-सप्लाई करके अंधाधुंध मुनाफ़ा कमाने की प्रकाशकों की अन्धी हवस के चलते आम लोगों तक पुस्तकों को पहुँचाने वाले किसी प्रभावी तंत्र का अभाव, इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रभाव के कारण आम पढ़े-लिखे लोगों की सांस्कृतिक अभिरुचि में आई गिरावट आदि को इस समस्या के कुछ स्थूल कारणों के रूप में देखा जा सकता है।
      इनके अतिरिक्त कुछ बुनियादी सामाजिक ऐतिहासिक कारण भी हैं। हमारे समाज के तीव्र पूँजीवादीकरण ने एक ऐसी मध्यवर्गीय आबादी की भारी संख्या पैदा की है जो बाज़ार-संस्कृति का अन्ध-उपासक और गैर-जनतांत्रिक प्रवृत्ति का है। कला-साहित्य-संस्कृति से न तो इसका कुछ लेना-देना है और न ही आम जनता के जीवन से। व्यापार-प्रबन्धन, बचत, निवेश और मौज-मस्ती आदि की इसकी अपनी दुनिया है जो शेष समाज से एकदम कटी हुई है। एक कारण यह भी है कि तमाम भौतिक प्रगति के बावजूद, हमारे समाज के आम लोगों की आँखों में आज वे भविष्य-स्वप्न नहीं हैं जो सामाजिक जीवन को आवेगमय बनाते हैं। यह समय गतिरोध और विपर्यय का समय है। सामाजिक मुक्ति की कोई नयी परियोजना अभी जीवन में हलचल पैदा करने वाली भौतिक शक्ति नहीं बन पायी है। इतिहास के ऐसे कालखण्डों में स्तरीय जनपरक साहित्य का दायरा प्रायः काफ़ी संकुचित हो जाया करता है। लेकिन इन कारणों से जुड़ा हुआ एक और कारण है जिसे हम यहाँ विचारार्थ अपने उन सहयात्री साहित्यकारों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहते हैं जो साहित्य में कुलीनतावाद का विरोध करते हैं।
      .........
      हम विनम्रता, चिन्ता और सरोकार के साथ साहित्यक्षेत्र के सुधी सर्जकों का ध्यान इस नंगी-कड़वी सच्चाई की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं कि उस मेहनतकश आबादी की, जो देश की कुल आबादी के पचास प्रतिशत से भी अधिक हो चुकी है, ज़िन्दगी की जद्दोजहद समकालीन हिन्दी साहित्य की दुनिया में लगभग अनुपस्थित है। आप याद करके ऐसे कितने उपन्यास या कहानियाँ उँगली पर गिना सकते हैं जिनकी कथाभूमि कोई औद्योगिक क्षेत्र की मज़दूर बस्ती और कारख़ानों के इर्दगिर्द तैयार की गयी हो, जिनमें हर वर्ष अपनी जगह-जमीन से उजड़ने, विस्थापित होकर शहरों में आने और आधुनिक उत्पादन-तकनोलॉजी में आने वाले कारख़ानों में दिहाड़ी या ठेका मज़दूर के रूप में बारह-बारह, चौदह-चौदह घण्टे खटने वाले नये भारतीय सर्वहारा के जीवन की तफ़सीलों की प्रामाणिक ढंग से इन्दराजी की गयी हो। और इनके पीछे की कारक-प्रेरक शक्ति के रूप में काम करने वाली सामाजिक-आर्थिक संरचना की गति को अनावृत्त करने की कोशिश की गयी हो? सच्चाई यह है कि जो मज़दूर वर्ग आज संख्यात्मक दृष्टि से भी भारतीय समाज का बहुसंख्यक हिस्सा बन चुका है, उसका जीवन और परिवेश जनवादी और प्रगतिशील साहित्य की चौहद्दी में भी लगभग अनुपस्थित है। मज़दूर वर्ग और समाजवाद के प्रति रस्मी, दिखावटी या पाखण्डपूर्ण प्रतिबद्धता का भला इससे अधिक जीता-जागता प्रमाण और क्या हो सकता है?

     

     

     

    चलिए आज के लिए इतना ही , कीप ब्लॉगिंग एंड कीप टिप्पणिंग ………

    शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

    श्श्श्श्श्श्श्श्श कुछ कह न देना ……

     

    जानने वाले ये बात बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि मैं स्वभाव से जुनूनी किस्म का व्यक्ति हूं और जिस काम को हाथ में लेता हूं मेरी पूरी कोशिश होती है कि अपनी सर्वाधिक क्षमता और उर्ज़ा उसमें लगा दूं , फ़िर चाहे वो किताबें पढना या ब्लॉग लिखना , दफ़्तर में सरकारी काम काज को निपटाना हो या छत पर पडी क्यारियों में पौधों फ़ूलों का हाल चाल लेना । नए साल में और कुछ नया हुआ या नहीं ये तो पता नहीं मगर यकायक यूं लगने लगा है मानो पढने लिखने का वो मौजू मूड फ़िर अचानक से जाग्रत हो चुका है । कभी एक साथ दर्ज़न भर ब्लॉग्स पर लगातार लिखते रहने , पढने और टिप्पणी करने वाला मेरे जैसा ब्लॉगर भी पिछले वर्ष बेहद उदासीन रहा था ,ब्लॉग लेखन से और पढने से भी ,बहुत बार की कोशिशों के बावजूद भी , मगर अब लगने लगा कि पुरानी पटरियों पे ही अपनी रेल दौडने लगी है । मुझे पोस्टों और पोस्टों की टिप्पणियों को पढने में जितना आनंद आता है उतना ही उन्हें सहेज़ने में भी आता है । एक लंबे अर्से तक अपने ब्लॉग झा जी कहिन , पर दो पंक्तियों में पोस्टों के लिंक संजोने का लुत्फ़ खूब उठाया था मैंने ,शायद आपको फ़िर वही रफ़्तार देखने को मिले , चलिए फ़िलहाल तो आपको कुछ चुनिंदा टिप्पणियां पढवाता हूं ……………………….

     

    काव्य मंजूषा जी ने अपने ब्लॉग पर जैसे ही झंडे की कहानी सुनाई उस पर सलिल दादा ने टिप्पणी दी

     
    1. चला बिहारी ब्लॉगर बनने

      कहीं से लिए गए हों... ये ऐसे तथ्य हैं जिन्हें पढ़ते हुए गर्व भी होता है और हर बार लगता है कुछ नया पढने को मिला। लेकिन यह पोस्ट अगर गणतंत्र दिवस के आस पास होती तो और अच्छा होता।
      झंडा ऊंचा रहे हमारा।


     

    हिंदी ब्लॉगर रश्मि रवीज़ा अपनी पोस्टों में अक्सर हमसे आपसे और समाज से जुडे मुद्दों को निशाने पर लेती रही हैं । बहुत ही कमाल की पोस्ट में उन्होंने समाज की “कैसी कैसी रस्मों” का ज़िक्र किया तो कितनी दिलचस्प टिप्पणियां आईं देखिए


  • अन्तर सोहिल

    मैनें तो आजतक पत्नी को भी मेरे पैरों को छूने नहीं दिया है। शादी के तुरंत बाद एक रस्म हुई थी ससुराल में जिसमें वहां की एक काम वाली "नाईन" ने मेरे पैरों को धोया था। उनकी उम्र देखकर मेरे पैरों को हाथ लगाना मुझे आजतक शर्मिंदा कर देता है। थोडा विरोध भी किया, लेकिन बुजुर्ग ससुरालियों के सामने नहीं चली।
    प्रणाम

     

  • Digamber Naswa

    मेरे को तो कई रस्में आज के समय अनुसार उचित नहीं लगतीं और इनका विरोध होना ही चाहिए ... मेरा तो मानना ये भी है की इसकी शुरुआत लड़के को ही करनी चाहिए क्योंकि आज भी हमारा समाज पुरुष समाज ही ज्यादा है और उन्हें ही आगे आना चाहिए ...

     

  • Shekhar SumanJanuary 30, 2014 at 12:37 AM

    हमारे यहाँ तो नहीं धोये जाते, कबकी बंद हुयी ये रस्म... जाने किसने आवाज़ उठाई हो...
    दीदी, मैंने अपने यहाँ कभी बारात आती नहीं देखी अब तक... अब दूर-दूर तक कोई बहन ही नहीं तो देखें कहाँ से.... हाँ अपने भाइयों की शादियों में ऐसी रस्म नहीं हुयी थी ये याद है अच्छे से....
    वैसे बारात निकलने से पहले दूल्हा अपने मुंह से आम के पत्ते का डंठल काटता है और उसकी माँ को उन झूठे ठंठलों को खाना पड़ता है.... ये रसम बहुत अजीब लगी थी.... सोच कर रखा है कि ये रस्म नहीं होने दूँगा चाहे जो हो जाये...
    वैसे आपकी बात से सहमत हूँ कि शादियों में दूल्हा-दुल्हन के साथ साथ उनके माता-पिता भी ऐसे धुन में रहते हैं कि आस-पास वाले जो भी रस्म याद दिलाते जाएँ वो होती रहती है... कोई मैनिफेस्टो तो बंता नहीं, जिस भी रिश्तेदार को जो रस्म याद आ गयी, करवा दिया....

     

  • स्वप्न मञ्जूषा

    इतनी 'बोकवास' रस्म का अंत होना ही चाहिए :)
    वैसे मेरे घर में ये रस्म नहीं हुई क्योंकि 'मोका' ही नहीं मिला न !
    लेकिन सोच रही हूँ, अगर ऐसा होता तो, 'मेरे इनके' पाँव, मेरे बाबा छूते, क्यों भला ? अब इतनी भी अच्छी शक्ल नहीं है इनकी :)
    ये तो हुई मजाक की बात, लेकिन ये रस्म वाक़ई किसी भी हिसाब से सही नहीं है, बड़े-बुजुर्गों से अपने पाँव छुवाना ? अब इतनी तो अक्ल लड़कों में खुद ही होनी चाहिए कि वो खुद मना करें, अब हर बात उनको बतानी पड़ेगी क्या ? मेरी सास मेरी पाँव छुवे क्या मेरे पतिदेव बर्दाश्त कर लेंगे, नहीं न ?? तो फिर ?? अब ये हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपने घरों से इस वाहियात रस्म को ख़तम करने की शुरुआत करें । मेरे बेटे की शादी में ये रस्म पूरी तरह से बॉयकाट होगा, पक्की बात है ।

     

     

    सोचालय पर फ़िलहाल सिसकी मिली और उस पर कुछ यूं टीपा गया

     

    1. NAJanuary

      deja vu.
      ये घट चुका है तुम्हारे साथ पहले। फिर कब सम्हलोगे?
      ---
      वो अफसाना जिसे अंजाम तक पहुंचाना न हो मुमकिन...उसे एक फिलहाल तलक ठहराये हुये रखना?
      तुम्हारे खत खुदा के दरवाजे तक पहुंचते हैं...कह दो एक रोज सारा कुछ...
      पढ़ा है तुम्हें, जिया है तुम्हें, सोचा भी है दिन के कई पहर...हो ये भी तो सकता है कि कोई बस उतने भर के लिये था। तकलीफ जितनी उसने दी है, तुमने दामन फैलाये मांगी भी तो थी...वो जो खुदा बोल के बैठा है उपर। उससे कितने सवाल करोगे? रो रो के समंदर भर दो और फिर खाली दिल और दामन लिये उस किनारे से लौट आओ।
      दोस्त, हम जन्म से अकेले हैं। उदास क्षणों में तो और भी। इतने दिनों से किसी को पढ़ते रहने पर कुछ हक बन जाता है।
      सुनो, एक गीत सुनो...
      धारा जो बहती है, मिलके रहती है
      बहती धारा बन जा...फिर दुनिया से बोल
      http://www.youtube.com/watch?v=pGYjHQbV1KE
      सुनो, मुस्कुरा दो जरा। तुम्हारी सिसकी चुभती है बहुत।



    शिखा जी ने अपनी पोस्ट में जिद्दी जिंदगी का ज़िक्र किया तो उसपर कहा गया

    1. शिवम् मिश्रा

      "जिंदगी बहुत जिद्दी और एगोइस्ट किस्म की होती है. उसे ज़रा सा लाइटली लेना शुरू करो तो तुरंत पैंतरा बदल लेती है."
      ज्यादा सीरियसली ले लो तो कौन सा रहम खा लेती है ... पैंतरा तो तब भी बदलती ही है न ... क्यों ??

     

    दीपिका रानी

    एक थ्रिलर है ज़िन्दगी... जिसके हर मोड़ पर कुछ न कुछ हमें हैरान कर जाता है.. यही इसकी ख़ासियत भी है। कितनी बोरियत भरी होती ज़िन्दगी अगर वह टिपिकल बॉलीवुड स्टाइल की फिल्म होती.. जिसका अंत हर कोई प्रेडिक्ट कर लेता है।

     

    रचना त्रिपाठी अपनी इस पोस्ट में कमाउ बीवियों के लिए कुछ कह बैठीं , प्रतिक्रियाएं देखिए

     

     

     
    1. अनूप शुक्ल

      युवक की सोच तरस खाने लायक ही है।
      समय बदल रहा है। सोच भी बदल रही है। आने वाले समय और बेहतर होगी सोच।
      अच्छा लेख !
      वैसे

       

    इष्ट देव सांकृत्यायन

    बुनियादी तौर पर हमारा समाज स्त्रियों के अर्थोपार्जन के ख़िलाफ़ नहीं रहा है. ऐसा होता तो वेदों में तमाम स्त्री ऋषि नहीं होतीं और न बाद के दौर में गार्गी, मैत्रेयी विदुषियों का ही उल्लेख मिलता. लेकिन पीछे का क़रीब दो हज़ार साल का विदेशी आक्रमणों का दौर पहले हमें मजबूर और बाद में कूढमगज बनाता गया. ये वही लोग हैं, जो अभी तक 2000 हज़ार साल पीछे ही अटके हुए हैं. उससे आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं हैं. क्योंकि इनमें आत्मविश्वास नहीं है.

     

    1. arvind mishra

      कमाऊ स्त्रियां पुरुष की बराबरी का दावा करती हैं -इगो क्लैस होते रहते हैं -
      और जब पुरुष निठल्ला हो और उसकी स्त्री कमाऊ तब तो वह पुरुष बेचारा तो भीगी बिल्ली हो रहता है -हींन भावना से ग्रस्त भी
      हाँ पुरुष और स्त्री दोनों का स्तर बराबर हो तो फिर हींन भावना नहीं आती किसी में भी।
      श्रोत=स्रोत

       

    smt. Ajit Gupta

    अब समाज तेजी से बदल रहा है, लेकिन फिर भी यह मानसिकता कहीं दिखायी दे ही जाती है। धीरे-धीरे इसमें भी बदलाव आ जाएगा।

     

    डॉ टी एस दराल जी ने अपने ब्लॉग अंतर्मंथन पर , अपनी बालकनी पर आ बैठे कबूतर को ये पोस्ट समर्पित की तो उस एक रोचक प्रतिक्रिया ये आई ,

    expression

    मुझे कबूतर कभी कभी थोड़े स्टुपिड से लगते हैं....खोजबीन करती हूँ उनके कुछ अटपटे/अनमने व्यवहार पर...
    हालांकि trained किये जा सकते है ये,इसलिए stupid होते तो न होंगे....
    nice click....nice post as always!!
    regards
    anu

     

     

    1. डॉ टी एस दराल

      अनु जी , सफेद कबूतर ट्रेन किये जा सकते हैं . लेकिन जंगली कबूतर तो हमे भी स्टुपिड ही लगते हैं .

     

     

    सत्यार्थमित्र जी ने अपनी पोस्ट में एक विचलित करने वाली रिपोर्ट प्रस्तुत की तो उस पर ये टिप्पणियां आईं

     

  • sadhana vaid

    प्राथमिक स्तर पर बच्चों को फेल ना करने का निर्णय भी इस शोचनीय स्थिति को और गंभीर बनाता है ! यह बच्चों व अध्यापकों को अकर्मण्यता के लिये प्रेरित करता है ! यह निर्णय केवल साक्षरों की संख्या के आंकड़ों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाने और अपनी पीठ थपथपाने जैसा है ! वे वास्तव में साक्षर हुए भी या नहीं इसकी चिंता किसीको नहीं है ! विचारणीय आलेख !

    Reply

  •  

  • स्वप्न मञ्जूषा

    सिद्धार्थ जी,
    अभी कम से कम आपको आँकड़े तो मिल रहे हैं, अगर यही हाल रहा तो सही आँकड़े बताने वाले भी नहीं मिलेंगे।
    मेरी माँ स्कूल इंस्पेक्ट्रेस थीं, उनके साथ कई स्कूलों में जाने का मौका मिला था । मैंने फर्स्ट हैण्ड सो कॉल्ड शिक्षकों के हाथों शिक्षा की दुर्गति होते देखी है.।
    लीजिये पेश है एक विडिओ जो बिहार के एक स्कूल का है, और ऐसे शिक्षक/शिक्षिका आपको अनगिनत स्कूलों में थोक के भाव में मिल जायेंगे।
    अभी दो महीने पहले एक आँगन-वाड़ी स्कूल में जाने का मौका मिला, हैरान हो गई देख कर, सरकारी पैसे का दुरूपयोग कैसे-कैसे किया जाता है ।
    http://www.youtube.com/watch?v=nafddfj2mXQ