आज ललित शर्मा जी अपनी पोस्ट पर एक बहुत की कमाल की बात कहते हुए लिखा कि यदि ये नियम बना दिया जाए कि सभी सरकारी कर्मचारियों अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढेंगे लिखेंगे और इसे अनिवार्य नियम कर दिया जाए तो निश्चित रूप से सरकारी स्कूलों के स्तर में भी सुधार होगा । इस पर टिप्पणी करते हुए ,
Ratan singh shekhawat ने कहा…
दीपक बाबा ने कहा…
विचारणीय लेख....
अभी हाल ही में दिल्ली के एम सी डी विद्यालय में गया ... विद्यालय भवन देख कर ही में भौचक रह गया ... इतना बढिया भवन है, पर ढंग से कैरिंग न होने के कारन ठीक नहीं रह पाता... यही गर अभिवावकों से बिल्डिंग फंड के नाम पर पैसा ले लिया जाय तो बच्चे भवन को गन्दा नहीं करेंगे.
और ,
सभी सरकारी स्कूलों की गत बुरी है ऐसा नहीं है. परन्तु ज्यादातर का बुरा हाल है. जहाँ न सुविधाएँ हैं न शिक्षकों में पढाने की ललक, क्लास में बैठ कर वे या तो स्वेटर बुनती नजर आती हैं या अपने व्यक्तिगत कार्य निबटाते टीचर.क्योंकि पढाना तो स्कूल के बाद ट्यूशन में होगा.
ऐसे में मजबूरी है अविभावकों की कि निजी स्कूल की तरफ रुख करें.
मेरे ख्याल से तो ऐसा सिर्फ़ स्कूलों ही क्यों अस्पतालों के साथ भी होना चाहिए कि हर सरकारी अस्पताल में सरकारी कर्मचारियों , अधिकारियों , नेताओं , मंत्रियों के बच्चे पढेंगे । मेरे ख्याल से सच में ही बहुत फ़र्क पड जाएगा । कम से कम इन्हें असलियत महसूस तो होगी ।
पिछले दिनों , ब्लॉग पोस्टों की चर्चा करने वाले सबसे लोकप्रिय चिट्ठे ..चिट्ठाचर्चा पर कम बैक करते हुए अनूप शुक्ल जी ने खूब नए नए खुलासे किए जिनमें से एक था ..ब्लॉग संकलक के रूप में प्रसिद्ध हुआ ब्लॉग हिंदी ब्लॉगजगत के संचालकों का खुलासा , जिनको चलाने वाले के बारे में जब उन्होंने बताया तो उस पर ये प्रतिक्रियाएं मिलीं ,
- अभी हाल ही में दिल्ली में एनडीटीवी के कार्यक्रम हम लोग में मुनव्वर राना साहब ने शिरकत की तो हमारे कुछ ब्लॉगर्स साथी जिन्हें उस कार्यक्रम का हिस्सा बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ , बोनस में मुनव्वर राना साहब से मुलाकात हो गई । उनमें से ही एक अपने माट साब रहे , और उनसे मिलने के बाद पोस्ट ठेल के सुपर इश्टारडम को और चार चांद लगा दिए , उनकी पोस्ट पर
- टीपते हुए बोले ...........मैं इलाहाबाद में था तो त्रिवेणी महोत्सव के मुशायरे में मुनव्वर राणा को सुनने के लिए देर रात तक इन्तजार करता था क्योंकि उनकी बारी सबसे अन्त में आती थी। लेकिन उनके नगीने जड़े शेरों के लिए पहले के तमाम शौरा को बर्दाश्त कर लेते थे। राहत इन्दौरी भी अन्त में ही आते थे।
आपने इस बेजोड़ सख़्शियत का नजदीक से दीदार किया और फोटुएँ खिंचवा ली तो बधाई भी रसीद कर देता हूँ। और रविकर फ़ैज़ाबादी अपने खास अंदाज़ में टीपते हुए कहते हैं ........
- राय बरेली का जमा, दिल्ली में जो रंग |
जमी मुनौव्वर शायरी, एन डी टी वी दंग |
एन डी टी वी दंग, अजी संतोष त्रिवेदी |
आया किसके संग, इंट्री किसने दे दी |
कहाँ मित्र अविनाश, स्वास्थ्य कैसा है भाई ?
श्रेष्ठ कलम का दास, स्वस्थ हो, बजे बधाई ||
पल्लवी सक्सेना अपने ब्लॉग पर अपने अनुभव बांटते हुए बहुत कुछ कमाल का लिखती हैं , शायद इसीलिए उनके ब्लॉग का नाम ही अनुभव है । आज उन्होंने , अपेक्षाओं यानि Expectation को क्या खूब
परिभाषित किया है ,और इस पर टीपते हुए , देखिए पाठक क्या कहते हैं ,
कहते है उम्मीद पर तो दुनिया कायम है हम दूसरो से उम्मीदे रखते है तभी तो शायद जीवित है | पत्निया पति के कहने से पहले ही उनकी सारी उम्मीदे पूरी कर देती है बची हुई हक़ से कह कर पति पुरा करा लेते है जबकि इस मामले में पत्निया शुरू में ही सोच लेती है की क्या फायदा कहने से पूरी होने वाली नहीं है :) लेकिन समस्या ये है की जब तक आप कहेंगी नहीं तब तक पता कैसे चलेगा की आप की उम्मीद क्या है तो बोलिये और अपनी उम्मीदे भी हक़ से उनसे पूरी करवाइए जो आप के अपने है |और ,
पल्लवी बिटिया, इस समस्या को गीतों के माध्यम से सुलझाने की कोशिश करता हूँ.
‘वफ़ा जिनसे की बेवफ़ा हो गए.....’ यह अपेक्षाएँ पूरी न होने की एक स्थिति है.
‘दिल को है तुम से प्यार क्यों यह न बता सकूँगा मैं.....’ इसमें अपेक्षाओं को परिभाषित न कर पाने की स्थिति है.
‘तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही, तू नहीं और नहीं, और नहीं, और सही.....’ यह अपेक्षाएँ पूरी न होने पर अपेक्षाओं का नया आधार ढूँढने की स्थिति है.
‘टूटे न दिल टूटे न, साथ हमारा छूटे न.....’ यह अपेक्षाओं की उफनती नदी है.
‘छोड़ कर तेरे प्यार का दामन, ये बता दे के हम किधर जाएँ.....’ यह अपेक्षाओं की बाढ़ है.
अपेक्षाओं से बचना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है.....ऐसा अपेक्षा नाम का 'डॉन' स्वयं कह गया है :))
एम वर्मा जी , बहुत बेहतरीन कविताएं , गज़ल लिखते हैं , उनके बिम्ब प्रतिबिंब का तो कहना ही क्या , आज वे पत्थर के गांव में आइना लेकर जब ठहरे तो उस पर , पाठकों की राय कुछ इस तरह आई ,
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बेपनाह मुहब्बत का सबूत और क्या होगा
पत्थरों के गाँव में ठहरने लगा है आईना
काफी रिस्क उठा रहा है ये मजनू तो :) मगर क्या करे वो कहते हैं कि प्यार अँधा होता है उसे रिस्क-विस्क नजर नहीं आता :) बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
पूजा उपाध्याय ने आज जो कहानी अपने ब्लॉग पोस्ट के रूप में लिखी है उसके लिए वे खुद कहती हैं कि ये कहानी थोडी डिस्टर्बिंग और वायलेंट है , लेकिन पाठक कहते हैं
खतरनाक कहानी.... आरम्भ से अंत तक बांधे रखा!
कई बार शरीर में सिहरन सी अनुभव हुयी!पता नहीं ऐसी कहानी लिखी जनि चाहिए या नहीं.... पर.....
पढता चला गया और दो-तीन बार पढ़ कर कमेन्ट करने की हालत में आया...
कुँवर जी,
Devendra Gautam ने कहा…
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तो यह है आपकी लेखनी में धार का रहस्य. आपके गद्य में चुटीलेपन का राज़. आप खुशकिस्मत हैं कि हरिशंकर परसाई जैसी विभूति का सानिध्य मिला. मुझे लगता है कि परसाई जी पर काफी कुछ किया जाना बाकी है. उनका लिखा हुआ बहुत पढ़ा है लेकिन उनके निजी, पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन जीवन के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. सिर्फ इतना पता है कि वे जबलपुर में रहते थे और अंतिम दिनों में काफी अस्वस्थ रहे थे.
और ,
राजेश उत्साही ने कहा…
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परसाई जी के हाथों पुरस्कार। बधाई। वे जिनके मामा होते हैं उनसे होशंगाबाद में हमारी मित्रता रही। पर मिलने का मौका तो कभी नहीं आया। हां मप्र साहित्य परिषद की पत्रिका साक्षात्कार के अंक में कुछ ऐसा संयोग हुआ कि उनका व्यंग्य और मेरी कविता आमने सामने के पृष्ठ पर प्रकाशित हुई थी। हमने तो उसे ही अपना पुरस्कार मान लिया था।
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आपके संस्मरण ने बहुत कुछ बताया और याद दिलाया।
तो चलिए आज के लिए इतना ही , इसलिए तो कहता हूं कि पोस्टें भी लिखिए और टिप्पणियां भी । अजी हम टिप्पणियां भी पढते हैं , और खूब पढते हैं ।
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वैसे मुझे पता नहीं था कि निशांत मिश्र जी ने इसे बनाया है, जबकि एकाध बार मैंने श्रीमान हिन्दीब्लॉगजगत को मेल से सम्पर्क भी किया था अपना फोटो ब्लॉग थॉट्स ऑफ लेन्स जोड़ने के सिलसिले में...तब भी पता न चला था कि सामने निशांत जी ही हैं :)
Secrecy break हुई आज....at least for me :)