रविवार, 27 मार्च 2011

और ये रही आज की टिप्पणियां ..off course हमारे टिप्पे के साथ ...झा जी का टिप्पा











आज जबकि बहुत दिनों बाद फ़िर से टिप्पणियों की याद आई , मतलब ये कि मैंने टिप्पणियों को याद किया उनके बारे में सोचा और ब्लॉग बकबक पर इस बात का ज़िक्र भी किया  है कि टिप्पणियों को सहेजने के लिए अलग












खुशदीप भाई की इस पोस्ट पर


दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
छिछोरिऑन तो सर्वव्यापक है। पदार्थ के कान्स्टीट्यूएंट (त्रिगुण) में से एक है। रजोगुण कहते हैं शायद उसे। पदार्थ के प्रत्येक कण में वह विराजमान है। बस कभी उस की अभिव्यक्ति होती है कभी नहीं होती।
डॉ टी एस दराल said...
साहित्य के लिए सैंकड़ों द्वार हैं । लेकिन अभिव्यक्ति के लिए बस ब्लोगिंग ही है जो सब को निशुल्क , निर्विरोध , २४ अवर्स इ डे , सेवेन डेज इ वीक उपलब्ध है । यह तो विचारों का एक गुल्लक है । जितना चाहे , अपनी पसंद और सामर्थ्य अनुसार , डालते रहो ।
डा. अमर कुमार said...
. फिलहाल कोई टिप्पणी नहीं.... ! यह विषय टिप्पणी में समेटने वाला नहीं है । शायद आपने मॉडरेशन हटा दिया है, आशा है इसका कारण मेरा आग्रह न रहा हो ! बात अपनी औ तुम्हारी साँझी पीड़ा जो हमारी। वो स्वरों को खोलकर, जाँचना सब चाहते हैं, भाव उठ, बह चले जो, बाँचना सब चाहते हैं, कर्म है उनका यही तो इस कर्म का अधिकार दे दो संग ही मेरे हृदय के मर्म का आधार दे दो ।। यह क्या है... साहित्य या महज़ ब्लॉगरीय अभिव्यक्ति ? यदि कमलेश्वर को बीच में घसीटा जाये तो उनके लिखे अनुसार.. "इन कफ़स की तीलियों से छन रहा है कुछ नूर - सा कुछ फज़ा कुछ हसरते परवाज़ की बातें करो... " कहीं दर्ज़ हो जाने के बाद यही फ़ज़ा और हसरते परवाज़ साहित्य कहलायेगा । यही शख़्स कहीं आगे लिखता है.. "इन बंद कमरों में मेरी साँस घुटी जाती है खिड़िकियाँ खोलता हूँ तो ज़हरीली हवा आती है" यह छटपटाहट सामयिक सँदर्भों की ब्लॉगिंग कही जा सकती है । अब सवाल यह है कि, यदि साहित्य समाज का दर्पण है... और इस दर्पण में आप अपनी तस्वीर तो देख ही सकते हैं, साथ ही दुनिया को भी आइना दिखा सकते हैं.. तो इस नाते ब्लॉगिंग क्या हुई... उन्मुक्त अभिव्यक्ति की एक साहित्यिक विधा या माध्यम... ? यह आप पर है कि, इसे अपनी सुविधानुसार आप जो भी कहना चाहें !
देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…
..ई झाड़ बनारसी का होत है? सांड़ बनारसी से नहीं मिले का ? ..सदियों पुरानी माया, सदियों पुराना बुढ़ौना । फर्क है तो सिर्फ नवकी पतोहिया के दर्द का। कहीं कहीं तो नवकी पतोहिये दर्द दे रही हैं नवके भतार को।
प्रवीण पाण्डेय ने कहा…
घर के बुढ़ौना में उमंग की आस, जीवन अतृप्त, प्रतीक्षा की प्यास।
सतीश पंचम ने कहा…
जियो करेजा जियो....एकदम मन हिलोर :)