मंगलवार, 26 जून 2012

टिप्पणियां ...पोस्ट को ज़िंदा रखती हैं







ब्लॉगिंग में जितना आकर्षण ब्लॉग पोस्टों का रहा है शुरू से लगभग उतना ही उन पर दर्ज़ टिप्पणियों का भी रहा है । और यकीन मानिए कभी कभी तो शायद उससे भी ज्यादा । वैसे भी मुझे तो जितना पोस्टें अपनी ओर खींचती हैं उतनी ही प्रभावित टिप्पणियां भी करती हैं । ऐसा लगता है मानो आजकल लोगों ने टीपना कम कर दिया है , लेकिन इतना भी कम नहीं किया कि ढूंढने से कमाल कमाल की टिप्पणियां न मिलें । जहां तक मेरी बात है तो मेरी तो कोशिश यही रहती है कि जितना आनंद पोस्ट लेखक को पोस्ट लिखने में आया हो , उतना ही आनंद उसे उस पोस्ट पर आई टिप्पणियों से भी आना चाहिए । सहमति -असहमति , आलोचना, प्रशंसा से इतर मूल बात ये कि टिप्पणियां पोस्ट को जिंदा रखती हैं । जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं , इन दिनों मैंने पाया कि कुछ ब्लॉग्स पर टिप्पणियों का विकल्प बंद ही कर दिया गया है । कारण जो भी हो , किंतु ये कुछ कुछ इस तरह का लगता है मानो आपको कहा जा रहा हो , आइए पढिए और जाइए । हालांकि किसी अप्रिय स्थिति में मॉडरेशन सुविधा का उपयोग मेरे विचार से एक बेहतर विकल्प हो सकता है । खैर ये तो ब्लॉग संचालक की इच्छा , जिसका सम्मान किया जाना चाहिए । चलिए कुछ दिलचस्प टिप्पणियां पढवाते हैं आपको



आज ललित शर्मा जी अपनी पोस्ट पर एक बहुत की कमाल की बात कहते हुए लिखा कि यदि ये नियम बना दिया जाए कि सभी सरकारी कर्मचारियों अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढेंगे लिखेंगे और इसे अनिवार्य नियम कर दिया जाए तो निश्चित रूप से सरकारी स्कूलों के स्तर में भी सुधार होगा । इस पर टिप्पणी करते हुए ,



Ratan singh shekhawat ने कहा…
बड़े निजी स्कूलों में अपने बच्चों का दाखिला अभिभावकों के लिए बच्चों की पढाई से ज्यादा अपना स्टेटस सिम्बल का प्रतीक बन गया है|
अब गांवों में भी सरकारी स्कूलें खाली पड़ी रहती है|
और ,



दीपक बाबा ने कहा…
विचारणीय लेख....


अभी हाल ही में दिल्ली के एम सी डी विद्यालय में गया ... विद्यालय भवन देख कर ही में भौचक रह गया ... इतना बढिया भवन है, पर ढंग से कैरिंग न होने के कारन ठीक नहीं रह पाता... यही गर अभिवावकों से बिल्डिंग फंड के नाम पर पैसा ले लिया जाय तो बच्चे भवन को गन्दा नहीं करेंगे.


और ,




shikha varshney ने कहा…
सभी सरकारी स्कूलों की गत बुरी है ऐसा नहीं है. परन्तु ज्यादातर का बुरा हाल है. जहाँ न सुविधाएँ हैं न शिक्षकों में पढाने की ललक, क्लास में बैठ कर वे या तो स्वेटर बुनती नजर आती हैं या अपने व्यक्तिगत कार्य निबटाते टीचर.क्योंकि पढाना तो स्कूल के बाद ट्यूशन में होगा.
ऐसे में मजबूरी है अविभावकों की कि निजी स्कूल की तरफ रुख करें.


मेरे ख्याल से तो ऐसा सिर्फ़ स्कूलों ही क्यों अस्पतालों के साथ भी होना चाहिए कि हर सरकारी अस्पताल में सरकारी कर्मचारियों , अधिकारियों , नेताओं , मंत्रियों के बच्चे पढेंगे । मेरे ख्याल से सच में ही बहुत फ़र्क पड जाएगा । कम से कम इन्हें असलियत महसूस तो होगी ।

 पिछले दिनों , ब्लॉग पोस्टों की चर्चा करने वाले सबसे लोकप्रिय चिट्ठे ..चिट्ठाचर्चा पर कम बैक करते हुए अनूप शुक्ल जी ने खूब नए नए खुलासे किए जिनमें से एक था ..ब्लॉग संकलक के रूप में प्रसिद्ध हुआ ब्लॉग हिंदी ब्लॉगजगत के संचालकों का खुलासा , जिनको चलाने वाले के बारे में जब उन्होंने बताया तो उस पर ये प्रतिक्रियाएं मिलीं ,



  1. हिंदीब्लॉगजगत ही वह संकलक है जिसे मैं इस्तेमाल करता हूँ, बाकि संकलकों पर गये महीनों हो गये।

    वैसे मुझे पता नहीं था कि निशांत मिश्र जी ने इसे बनाया है, जबकि एकाध बार मैंने श्रीमान हिन्दीब्लॉगजगत को मेल से सम्पर्क भी किया था अपना फोटो ब्लॉग थॉट्स ऑफ लेन्स जोड़ने के सिलसिले में...तब भी पता न चला था कि सामने निशांत जी ही हैं :)

    Secrecy break हुई आज....at least for me :)

    इसका उत्तर फ़ौरन ही मिला :- 
    उत्तर
    1. Nishant
      सतीश जी,
      हिंदीब्लौगजगत बनाने के पीछे दो व्यक्तियों का हाथ है. दोनों ही इसे मैनेज कर सकते हैं. उनमें से एक मैं हूँ इसका भेद खुल गया है. दूसरे ब्लौगर नहीं चाहते कि उनका नाम सामने आये इसलिए अहतियात रखना पड़ेगा. मैं उसमें पोस्ट आदि लगाने के विरुद्ध था और अब उसे केवल संकलक मात्र के रूप में देखकर ही संतुष्टि होती है. फिलहाल यह बढ़िया ब्लौगों तक पहुँचने का बढ़िया विकल्प है.
    2. Nishant
      सतीश जी,
      हिन्दीब्लौगजगत बनाने के पीछे दो ब्लौगरों का हाथ है. उनमें से एक मैं हूँ यह भेद खुल चुका है. हम दोनों ही इसे मैनेज करते हैं. दूसरे ब्लौगर अपना परिचय सार्वजनिक नहीं करना चाहते इसलिए अब अहतियात रखना पड़ेगा. मैं इसमें पोस्ट आदि करने के विरुद्ध था. यह अपने वर्तमान स्वरूप में ही उपयोगी है.

अभी हाल ही में दिल्ली में एनडीटीवी के कार्यक्रम हम लोग में मुनव्वर राना साहब ने शिरकत की तो हमारे कुछ ब्लॉगर्स साथी जिन्हें उस कार्यक्रम का हिस्सा बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ , बोनस में मुनव्वर राना साहब से मुलाकात हो गई । उनमें से ही एक अपने माट साब रहे , और उनसे मिलने के बाद पोस्ट ठेल के सुपर इश्टारडम को और चार चांद लगा दिए , उनकी पोस्ट पर 
टीपते हुए बोले ...........
मैं इलाहाबाद में था तो त्रिवेणी महोत्सव के मुशायरे में मुनव्वर राणा को सुनने के लिए देर रात तक इन्तजार करता था क्योंकि उनकी बारी सबसे अन्त में आती थी। लेकिन उनके नगीने जड़े शेरों के लिए पहले के तमाम शौरा को बर्दाश्त कर लेते थे। राहत इन्दौरी भी अन्त में ही आते थे।


आपने इस बेजोड़ सख़्शियत का नजदीक से दीदार किया और फोटुएँ खिंचवा ली तो बधाई भी रसीद कर देता हूँ।
और रविकर फ़ैज़ाबादी अपने खास अंदाज़ में टीपते हुए कहते हैं ........
राय बरेली का जमा, दिल्ली में जो रंग |
जमी मुनौव्वर शायरी, एन डी टी वी दंग |
एन डी टी वी दंग, अजी संतोष त्रिवेदी |
आया किसके संग, इंट्री किसने दे दी |
कहाँ मित्र अविनाश, स्वास्थ्य कैसा है भाई ?
श्रेष्ठ कलम का दास, स्वस्थ हो, बजे बधाई ||


पल्लवी सक्सेना अपने ब्लॉग पर अपने अनुभव बांटते हुए बहुत कुछ कमाल का लिखती हैं , शायद इसीलिए उनके ब्लॉग का नाम ही अनुभव है । आज उन्होंने , अपेक्षाओं  यानि Expectation को क्या खूब
परिभाषित किया है  ,और इस पर टीपते हुए , देखिए पाठक क्या कहते हैं ,




कहते है उम्मीद पर तो दुनिया कायम है हम दूसरो से उम्मीदे रखते है तभी तो शायद जीवित है | पत्निया पति के कहने से पहले ही उनकी सारी उम्मीदे पूरी कर देती है बची हुई हक़ से कह कर पति पुरा करा लेते है जबकि इस मामले में पत्निया शुरू में ही सोच लेती है की क्या फायदा कहने से पूरी होने वाली नहीं है :) लेकिन समस्या ये है की जब तक आप कहेंगी नहीं तब तक पता कैसे चलेगा की आप की उम्मीद क्या है तो बोलिये और अपनी उम्मीदे भी हक़ से उनसे पूरी करवाइए जो आप के अपने है |


और ,

पल्लवी बिटिया, इस समस्या को गीतों के माध्यम से सुलझाने की कोशिश करता हूँ.


‘वफ़ा जिनसे की बेवफ़ा हो गए.....’ यह अपेक्षाएँ पूरी न होने की एक स्थिति है.


‘दिल को है तुम से प्यार क्यों यह न बता सकूँगा मैं.....’ इसमें अपेक्षाओं को परिभाषित न कर पाने की स्थिति है.


‘तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही, तू नहीं और नहीं, और नहीं, और सही.....’ यह अपेक्षाएँ पूरी न होने पर अपेक्षाओं का नया आधार ढूँढने की स्थिति है.


‘टूटे न दिल टूटे न, साथ हमारा छूटे न.....’ यह अपेक्षाओं की उफनती नदी है.


‘छोड़ कर तेरे प्यार का दामन, ये बता दे के हम किधर जाएँ.....’ यह अपेक्षाओं की बाढ़ है.


अपेक्षाओं से बचना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है.....ऐसा अपेक्षा नाम का 'डॉन' स्वयं कह गया है :))


एम वर्मा जी , बहुत बेहतरीन कविताएं , गज़ल लिखते हैं , उनके बिम्ब प्रतिबिंब का तो कहना ही क्या , आज वे पत्थर के गांव में आइना लेकर जब ठहरे तो उस पर  , पाठकों की राय कुछ इस तरह आई ,


बेपनाह मुहब्बत का सबूत और क्या होगा

पत्थरों के गाँव में ठहरने लगा है आईना

काफी रिस्क उठा रहा है ये मजनू तो :) मगर क्या करे वो कहते हैं कि प्यार अँधा होता है उसे रिस्क-विस्क नजर नहीं आता :) बहुत सुन्दर प्रस्तुति !


पूजा उपाध्याय ने आज जो कहानी अपने ब्लॉग पोस्ट के रूप में लिखी है उसके लिए वे खुद कहती हैं कि ये कहानी थोडी डिस्टर्बिंग और वायलेंट है , लेकिन पाठक कहते हैं



खतरनाक कहानी.... आरम्भ से अंत तक बांधे रखा!
कई बार शरीर में सिहरन सी अनुभव हुयी!पता नहीं ऐसी कहानी लिखी जनि चाहिए या नहीं.... पर.....
पढता चला गया और दो-तीन बार पढ़ कर कमेन्ट करने की हालत में आया...

कुँवर जी,
उडनतश्तरी जी , बहुत दिन का अबसेंटी मार रहे हैं आजकल । टिप्पी तो टिप्पी पोस्टवो सब ...गाडी विलंब से आने की सूचना है , टाईप से सुस्ता सुस्ता के लिख रहे हैं । आज एक ठो राज़ पिछले जनम का जैसे ही खोले , कि देखिए दोस्त मित्रों ने क्या कहा



Devendra Gautam ने कहा…

तो यह है आपकी लेखनी में धार का रहस्य. आपके गद्य में चुटीलेपन का राज़. आप खुशकिस्मत हैं कि हरिशंकर परसाई जैसी विभूति का सानिध्य मिला. मुझे लगता है कि परसाई जी पर काफी कुछ किया जाना बाकी है. उनका लिखा हुआ बहुत पढ़ा है लेकिन उनके निजी, पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन जीवन के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. सिर्फ इतना पता है कि वे जबलपुर में रहते थे और अंतिम दिनों में काफी अस्वस्थ रहे थे. 

और ,

राजेश उत्‍साही ने कहा…
परसाई जी के हाथों पुरस्‍कार। बधाई। वे जिनके मामा होते हैं उनसे होशंगाबाद में हमारी मित्रता रही। पर मिलने का मौका तो कभी नहीं आया। हां मप्र साहित्‍य परिषद की पत्रिका साक्षात्‍कार के अंक में कुछ ऐसा संयोग हुआ कि उनका व्‍यंग्‍य और मेरी कविता आमने सामने के पृष्‍ठ पर प्रकाशित हुई थी। हमने तो उसे ही अपना पुरस्‍कार मान लिया था।
*
आपके संस्‍मरण ने बहुत कुछ बताया और याद दिलाया।


तो चलिए आज के लिए इतना ही , इसलिए तो कहता हूं कि पोस्टें भी लिखिए और टिप्पणियां भी । अजी हम टिप्पणियां भी पढते हैं , और खूब पढते हैं । 

रविवार, 27 मई 2012

तुम मुझे पोस्ट दो मैं तुम्हें टिप्पणी दूंगा



आज खुशदीप भाई की इस पोस्ट पर कमाल की टिप्पंणियां देखने पढने को मिलीं ।खुशदीप भाई ने जैसे ही चिंतन करते हुए पूछा कि , हाय राम , कैसे होगा ब्लॉगिंग का उत्थान और उसमें लिखा कि ,

"यहां ऐसा भी है कि खुद  अलोकतांत्रिक  तरीके अपनाए  जा रहे हैं और दूसरों को दुनिया जहां की नसीहतें दी जाती हैं...मैं जब से ब्लॉगिंग कर रहा हूं माडरेशन  को मैने हमेशा दूसरों की अभिव्यक्ति को घोंटने का औज़ार माना है...अब  तो टिप्पणी आप्शन  बंद  करने और ब्लॉग को आमंत्रित  सदस्यों के लिए  रिज़र्व  रखने का भी ट्रेंड  शुरू हो गया है..."

इस पर टिप्पणियां कमाल की आईं देखिए ,




अरविन्द जी के ब्लॉग पर दी गई यह टिप्पणी यहाँ भी तर्क संगत लग रही है . इसलिए चेप दी है .
ब्लॉगिंग में इस तरह की फीलिंग्स अक्सर सभी को कभी न कभी आती हैं . बेशक यहाँ सभी लेखक हैं , शुद्ध पाठक कोई नहीं . टिप्पणियों का मामला भी पेचीदा है . यदि कोई एक दो बार न आए तो लगता है या तो नाराज़ है या उपेक्षा कर रहा है .
लेकिन अनुभव के साथ कुछ बातें सीखना ज़रूरी है . जैसे :
* सप्ताह में एक या दो से ज्यादा पोस्ट लिख कर हम दूसरों पर अत्याचार ही करते हैं .
* टिप्पणी तभी देनी चाहिए जब आप पोस्ट में दिलचस्पी रखते हों .
* बिना पोस्ट पढ़े एक दो शब्द की टिप्पणी देकर हाज़िरी लगाना एक लेखक को शर्मिंदा करता है .
* लेखों और पोस्ट्स में विविधता ज़रूरी है ताकि आप टाइप्ड न हों और नीरसता न आये .
* यह ज़रूरी नहीं की आप हमेशा किसी से सहमत हों , या असहमत हों .
* जो लोग ब्लॉग पर कभी नहीं आते , उन्हें हम नहीं पढ़ते भले ही इ मेल करें या कोई और अनुरोध . ऐसे लोगों की कमी नहीं है . कईयों को तो हमने फोलो करना भी बंद कर दिया है .
* सामूहिक ब्लॉग्स हमें कभी पसंद नहीं आये .

अंत में यही कहूँगा की पसंद अपनी अपनी -- जो सही लगे , वही करना चाहिए .




ब्लागिंग एक बवाल है, बड़ा झमेला राग,
पल में पानी सा बहे, छिन में बरसत आग!

भाई हते जो काल्हि तक,वे आज भये कुछ और,
रिश्ते यहां फ़िजूल हैं, मचा है कौआ रौर!

हड़बड़-हड़बड़ पोस्ट हैं, गड़बड़-सड़बड़ राय,
हड़बड़-सड़बड़ के दौर में,सब रहे यहां बड़बड़ाय!

हमें लगा सो कह दिया, अब आपौ कुछ कहिये भाय,
चर्चा करने को बैठ गये, आगे क्या लिक्खा जाय!


बाकी रचना जी ने जो आमंत्रित पाठकों मात्र के लिये अपना ब्लॉग कर दिया है वो कुछ जमा नहीं!



एक तरफ आप कहते हैं कि बीस​ पाठक भी बहुत है सार्थक विमर्श के लिए और दूसरी तरफ पाठक बढ़ाने के लिए आप एग्रीगेटर पर मौजूदगी बनाए रखें...


आप को भ्रम हैं की पाठक अग्रीगेटर से आते हैं , अग्रीगेटर का वजूद ब्लॉग से हैं नाकि ब्लॉग का अग्रीगेटर से .
अग्रीगेटर को अधिकार हैं किसी भी ब्लॉग को अपने स्क्रोल से हटाने का अगर क़ोई नियम भंग किया गया हो
आमंत्रित की परिभाषा अलग हैं भारत में निमन्त्रण का अर्थ हैं किसी को आमंत्रित करना , हम यहाँ आमंत्रित करने वाले से पूछते नहीं हैं जबकि बाकी जगह आमत्रित करने वाले से पहले पूछा जाता हैं "क्या आप आना पसंद करेगे , क्या आप आ सकते हैं " . जब उनसे सहमति मिल जाती हैं तब उनको निमन्त्रण भेजा जाता हैं .
ये एक सेट प्रोसेस हैं जो हमारे यहाँ अभी केवल कुछ वर्गों में प्रचलित हैं .
उसी आधार पर गूगल ने अपनी नीति बनाई हैं की जो ब्लॉग मालिक से कहे की "मुझे पढना हैं " ब्लॉग मालिक उसको निमन्त्रण भेज दे .
अब वो पढ़े जो अपने ईमेल आईडी मुझे दे .
मेरे रेगुलर पाठक जो टिपण्णी केवल इस वजह से नहीं करते हैं की मेरा साथ देने से बहस होगी खुश हैं क्युकी अब वो खुल कर बात कर सकेगे .
और हाँ मेरी बात को अपने पाठको तक रखने का थैंक्स
लिंक भी दे देते
और अगर हमारिवानी आपके पैसे से चलता हो तो सूचित कर दे में अपना ब्लॉग हटा लूंगी क्युकी हमारिवानी पर ब्लॉग जोडने के लिये मुझे ईमेल से निमंत्रण दिया गया था और मुझे आभास था की ये शाहनवाज का हैं .
  1. शुक्रिया, मुझ जैसे फक्कड़ आदमी को पैसे वाला समझने का...​

    पहली बात हमारीवाणी के संचालन से मेरा कोई जुड़ाव नहीं है...बात सिर्फ हमारीवाणी तक ही सीमित नहीं है...संकलक, हिंदी ब्लागजगत, ब्लाग परिवार जैसे और भी कई एग्रीगेटर है...सभी के पाठकों को इस असुविधाजनक स्थिति का सामना करना पड़ता होगा...आप को पूरा अधिकार है जैसे चाहे अपने ब्लाग को चलाएं...वैसे नीचे मनोज कुमार जी ने उस बात को बड़ी अच्छी तरह इंगित किया है, जिसे मैंने पोस्ट में उठाया है....​
    ​​
    ​जय हिंद...



  1. अच्छी पोस्ट! हम तो लिखते ही इसलिए हैं कि लोग इसे पढ़ें। कम से कम वे तो अवश्य ही पढ़ें जिन को लिखे से मिर्ची लगती हो। फिर अपनी सीईईईईई ...... टिप्पणी बक्से में जरूर छोड़ें। ये सब न हो तो ब्लागिंग नीरस हो जाएगी।
    Reply
  2. "कम से कम वे तो अवश्य ही पढ़ें जिन को लिखे से मिर्ची लगती हो। फिर अपनी सीईईईईई ...... टिप्पणी बक्से में जरूर छोड़ें। ये सब न हो तो ब्लागिंग नीरस हो जाएगी।" मैं भी दिनेश जी से सहमत हो लेता हूँ :)
    और लोगों का देख देख कर मेरा भी सहमताने का मन हो आया .. :)



    ओह काफ़ी सारी टिप्पणियां हो गईं चलिए अब दूसरी पोस्ट की तरफ़ बढते हैं  । पूजा आजकल अपनी लहरों के साथ बहुत रफ़्तार में पोस्टें लिख रही हैं और कमाल लिख रही हैं , अपनी एक हाल की पोस्ट में उन्होंने बहुत दिलचस्पी से , बोली एंड भाषा , माथापच्ची इन बिहारी , शीर्षक की पोस्ट में मस्त पटनैय्या अंदाज़ को सहेजते और उकरते हुए लिखा ,


    "एक दोस्त है मेरा...उसे बात करते हुए हर कुछ देर में ऐसा कुछ कहना ही पड़ता है...लात खाओगे...मार के ठीक कर देंगे...डीलिंग दोगे बेसी हमको...अपनी तरह बोक्का समझे हो...देंगे दू थाप...ढेर होसियार बूझते हो...तुमरा कुच्छो नहीं हो सकता...कुछ बुझाईबो करता है तुमको...और एक ठो सबसे ज्यादा मिस्युज्ड शब्द है...थेत्थर(verb-थेथरई, study of थेथर एंड इट्स कांटेक्स्ट: थेथरोलोजी). अब इसका अनुवाद करने में जान चले जाए आदमी का. वैसे ही एक शब्द है...चांय...अब  चांय  आदमी जब तक आपको दिखा नहीं दिया जाए आप समझ ही नहीं सकते है कि किस  अर्थ में प्रयुक्त होता है. इसमें इनटोनेशन/उच्चारण बेहद जरूरी हिस्सा है...भाषा में चूँकि शब्दों के अर्थ तय होते हैं पर बोली में शब्द के कहने के माध्यम से आधा अर्थ उजागर होता है."

    इस पर आई प्रतिक्रियाएं देखिए 

    "अनुवाद करने में जान चला जाये आदमी का" ई वाला बेस्ट है।
    आ देखो कैसा संजोग है की तुम्हारा माथा दुखा रहा है आ इधर हमारा गोड़ टटा रहा है :)
    और एक बात जान लो हम पढ़ाई डिगरी से लेके नौकरी तक में आजतक "पंद्रह दूनी तीस तियाँ पैंतालीस चउका साठी पाँचे पचहत्तर छक्का नब्बे सात पिचोत्तर आठे बीसा नौ पैंतिसा झमकझमक्का डेढ़ सौ" से ही जोड़ घटाना करते हैं :) बिन सांस रोके :)
    झमकझमक्का का माने मत पुछना :P हमको भी नहीं मालूम काहे बोला जाता है।
    Reply
    Replies
    1. तुमरे गोड़ टटाने से जाने कैसे तो 'लतखोर' याद आ गया...ई भी एकदम क्लासिक गाली है अपने तरफ का :) :) वैसे ई हिंदी में हिसाब हमको नहीं आता ई से हरदम कमजोर ही रहे. पापा को या घर पर दीदी लोग को टेबल सब भी याद था कितना...स्क्वायर रूट भी और कितना के पावर कितना कि एकदम सुपरपावर लगता था. जिसको हिंदी में जोड़ना घटाना आता है उससे तो कैलकुलेटर वाले लोग मात खा जाते थे रे बाबा. तुम तो हम जितना बूझते थे उससे बेसी होसियार निकले रे!
    2. वैसे ऊपर वाला पहाडा हमारे UP में भी गाया जाता है, सुनिए...
      पंद्रह दूनी तीस, तिया पेंतालिस, चोके साठ, पना पचहत्तर, छक्के नब्बे, सतते पोंचा, अट्ठे बीसा, नवम पतीसा, धूम-धडाम-डेढ़ सौ..... :))
      वैसे इसे गाने की एक स्पेशल धुन भी है, सुनिए.... SSSSSSSSSSSSS..... दिल की आवाज को सुन...



      1. भासा आ संसक्रिति के चोली-दामन के साथ बा। हमार भासा न रही तs हमार संसक्रितिये बिला जाई। अगंरेजी तs दरिद्र भासा हs । देसी भासा मं एतना न सब्द बाटे के संप्रेसन मं कभियो परेसानी आ रुकावट नईं खे होत। भोजपुरी के एगो सब्द बड़ नीमन हs ...'एथी'(एथिया), एह सब्द के कौनो जोड़ये नईं खे। जवन सब्द मुँह मं अटकल बा ...निकरत नईं खे तs एथी बोल दीं ...समझे बाला समझ जाई। पूछब के केतना गो अर्थ बा एथी के ..तs उत्तर मिली -अनंत। एगो उदाहरन देखीं -"सुनतनी का, हमार कुर्तवा नईं खे मिलत ....कहाँ हिरा गइल बा" अब तनी ज़वाब सुनीं -" व्होइजे तs धरल बा ....तना एथिया मं देखीं न!"
        एगो दूसर उदाहरन- "तोहार ओह कमवा फरिया गइल के ना?" " कवन बाला?" "ऊहे ...एथी बाला"।
        पंजाबी आ सिधी कहिओ चल जाई पर आपन भासा नईं खे छोड़त .....एह परम्परा के हमनियो के अनुसरन करे के चाहीं। पूजा! तू आज बड़ी ज्वलंत प्रस्न उठइले बाड़ू। मारीसस मं भोजपुरी/मैथिली जियता तs बंगलोर मं काहे ना जीई ?


    कल किसी का पैर टटा रहा था, तो किसी का कपाड दुखा रहा था..
    मेरा तो पीठी कुरिया रहा था जिस वक्त तुम ये सब लिख रही थी.. :-|

    BTW, हम बिहार में बोली जाने वाली तीनों भाषा कामचलाऊ बोल लेते हैं. मैथिलि, मगही और भोजपुरी. :-)
    Reply
    1. परसांत तुम तो एकदम सुपरहीरो हो, ध्रुव के जैसन...और ई झूठ फूस पीठ कुरियाने का डीलिंग मत दो...हम सब बूझते हैं कि दो बजे रात तुमको तुमरा 'दोबजिया बैराग' जागता है सो बैठ के मैथली, मगही और भोजपुरी में किसी को गप्प दे रहे होगे छुटंकी बचवा सब का. :) :)



      आइए इसके बाद इसके आगे चलते हैं , अनु सिंह चौधरी ने आज के चिट्ठी लिखी , लो चिट्ठी आजकल कौन लिखता है , लेकिन चिट्ठी बहुत स्पेशल है , आखिर चिट्ठी लिखी भी तो नानी को गई है , देखिए नानी के नाम चिट्ठी ,. में अनु लिखती हैं कि ,

      "एक रात सपने में आप आई थीं। मेरे पैर में कांटा चुभा था कोई और मैं ननिहाल में बिस्तर पर बैठी थी, कांटे को निकालने के कोशिश में। आपके हाथ में कोई जंगली पत्ता था। आपने कहा मुझसे, अकवन के दूध से कांटा निकल जाई बाबू, तहार दुख दूर करे खातिर रामजी के आगे हाथ जोड़ब।

      आपका रामजी से सीधा कनेक्शन है, हाथ जोड़िएगा नानी। लेकिन मेरे ज़ख़्मों का इलाज मत कीजिए। टीसते रहे ये घाव तो याद आती रहेंगी आप, और याद आता रहेगा मुझे कि मैं किसके जैसा नहीं बनना चाहती थी और क्या बनती रही फिर भी...




      पोस्टस्क्रिप्ट: नानी को मैंने आख़िरी बार अपनी शादी में देखा था। शादी में उन्होंने वही सिल्क की साड़ी पहनी जो मैं अपने पैसे से खरीदकर लाई थी उनके लिए। पौ फटते ही पराती गाने बैठी नानी और दादी को देखकर लगता, बस इसी एक खुशी पर सब कुर्बान और शाम को नानी ढोलक के साथ राम-जानकी विवाह के गीत गातीं - जाईं बाबा जाईं अबध नगरिया/जहां बसे दसरथ राज/पान सुपारी बाबा तिलक दीहें/तुलसी के पात दहेज/कर जोरी बिनती करेब मोरे बाबा/मानी जायब श्रीराम हे। "
       
       
      इस पर आई प्रतिक्रियाएं देखिए 
       
       
      Ramakant Singh
      नारी कहूँ या भारतीय नारी का यही सर्वोच्च गुण उसे पुरे विश्व में वंदनीय हैं .
      आप कभी न सोंचें आधा गिलास खाली है वास्तव में आधा गिलास भरा है .
      गुण सदा गुण ही होते हैं बस परिस्थितियां ............
      Anupama Tripathi
      प्रेम और संस्कारों से भरा ये पत्र ...हर स्त्री के मन की बात है ....एक शाश्वत सत्य सा ....जिसकी महक फूलों के खुश्बू की तरह कभी कम होगी ही नहीं...!!
      सुंदेर विचार और उत्नी ही सुंदर अभिव्यक्ति भी ....!!
      शुभकामनायें.
       
       
       
    स्मार्ड इंडियन ,जी ने अपनी पोस्ट , और बहुत ही कमाल की पोस्ट में प्रश्न किया , या कहा जाए कि बताया कि ब्राह्मण कौन ? 


    "
    तब फिर ब्राह्मण है कौन? जिसे आत्मा का बोध हो गया है, जो जन्म और कर्म के बन्धन से मुक्त है, वह ब्राह्मण है। ब्राह्मण को छः बन्धनों से मुक्त होना अनिवार्य है - क्षुधा, तृष्णा, शोक, भ्रम, बुढापा, और मृत्यु। एक ब्राह्मण को छः परिवर्तनों से भी मुक्त होना चाहिये जिनमें पहला ही जन्म है। इन सब बातों का अर्थ यही निकलता है कि जन्म और भेद में विश्वास रखने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता। ब्राह्मण वह है जिसकी इच्छा शेष नहीं रहती। सच्चिदानन्द की प्राप्ति (या खोज) ब्राह्मण की दिशा है। असंतुष्टि के रहते कोई ब्राह्मण नहीं रह सकता, भले ही उसका जन्म किसी भी परिवार में हुआ हो। ऐसा लगता है कि "संतोषः परमो धर्मः" ब्राह्मणत्व की एक ज़रूरी शर्त है।

    आपका क्या विचार है? "


    जवाब आया , देखिए क्या ,



    सबसे पहले ये बताइये कि ये अली 'हसन' कौन हैं :)

    @ पोस्ट ,
    मेरा ख्याल है कि भारतीय चिंतन परम्परा ने , समाज की गतिशीलता और समाज के विकास में तालमेल बिठाये रखने के लिए , तत्कालीन समय में जो अवधारणायें / जो विचार / जो दर्शन दिये हैं ! वो मूलतः आध्यात्मिकता के न्यूक्लियस पर घूमते हैं ! तब भौतिक जीवन को जीने के लघु सत्य के साथ आध्यात्मिकता जीवन के बड़े लक्ष्य ( विराट सत्य ) को साधने का यत्न करना अनिवार्य माना गया था ! इस हिसाब से देखा जाये तो उन दिनों के ज्ञान में पारलौकिकता , इहलौकिकता पर भारी थी / महत्वपूर्ण मानी गई थी ! उन दिनों सच्चे ज्ञान का मतलब ब्रह्म ज्ञान माना गया और जो इस ज्ञान को अपनी क्षमता / योग्यता से पा सके उसे ब्राह्मण हो जाना था !

    'ब्रह्म' का आशय ईश्वर / मंत्र / यज्ञ / धार्मिकता तथा 'अण' का मतलब कहना है ! इस हिसाब से वे लोग , जो ब्रह्म के ज्ञान को पा सके और उसे दूसरों से कह सके , ब्राह्मण कहे गये ! यह एक संबोधन मात्र है जो हर ज्ञानी को दिया गया ! ज्ञानी के लिए ब्राह्मण शब्द / संबोधन पे ही आग्रह क्यों किया जाये ? ज्ञानी अपने आप में बेहतर संबोधन है , जिसके जन्मना होने की संभावना कम ही है या फिर पांडित्य से पंडित ! गौर करें तो ब्रह्म ज्ञान ही क्यों , गायन , वादन , नृत्य जैसे विधाओं में निष्णात को 'पंडित' संबोधन देते ही हैं भले ही उसकी जन्मना स्थिति चौरसिया की हो !

    आज के दौर में देखें तो ज्ञान का न्यूक्लियस ब्रह्म नहीं है विज्ञान है तकनीक है पर इससे क्या फर्क पड़ता है , संबोधन बदलने की जरूरत भी क्या है ? ज्ञानी को पंडित कहिये या ब्राह्मण या फिर ज्ञानी ही !

    ये सही है कि भारतीय दर्शन , वर्ण व्यवस्था के कार्मिक / दक्षता / योग्यता आधारित विभाजन के हिसाब से समाज को पर्याप्त गतिशील बनाये रखने का पक्षधर रहा है पर हमने इस दर्शन में अपनी अनुकूलता / स्वार्थ के अनुसार 'कर्मणा' की जगह 'जन्मना' को स्थापित कर दिया ! यह कुछ ऐसा है , जैसे कि एक बहती हुई नदी को ठहरे हुए पोखर में बदल दिया जाये ! विश्वामित्र का ब्रह्मऋषि होना और परशुराम का कर्म से क्षत्रिय हो जाना , तत्कालीन समाज दर्शन की कार्मिक तरलता के उदाहरण हैं ! एक बेहतर दर्शन जिसे उसके ही अनुयाइयों ने अपनी धड़कन के अनुरूप ढाल के बदहाल वर्शन (संस्करण) कर दिया है !

    इस विषय पर आलेख लिखते हुए , आपको नहीं लगता कि आपने किसी कल कल बहते 'कर्मणा' हिमनद के स्थान पर किसी स्तब्ध / जड़वत / 'जन्मना' रह गये ताल तलैया पे हाथ डाल दिया है !

    समाज चाहे जो भी हो , उसका धर्म चाहे जो भी हो , उसकी भाषा चाहे जो भी हो , उसका रंग रूप चाहे जो भी हो , उसका , ज्ञानी वर्ग उसमें पेश पेश दिखेगा ही ! आपको ब्राह्मण संबोधन अच्छा लगे तो ब्राह्मण कहिये !
    Reply
     
    1. :( गुस्ताखी माफ़! ये ध्यान कहाँ था कम्बख्त, आपके नाम की जगह बचपन के एक सहपाठी का नाम लिख गया। भूल सुधार ली है। ध्यानाकर्षण का आभार!


    तो आज के लिए इतना ही , मिलते हैं फ़िर टिप्पणियों के नए गुलदस्ते के साथ ..

शनिवार, 5 मई 2012

किसने , कहां , किसको , क्या कहा ….टिप्पणी चर्चा

 

 

 

कहा सुना जा रहा है कि इन दिनों ब्लॉगिंग में न सिर्फ़ पोस्ट लिखने की बल्कि , पढने की और जाहिर है कि पोस्ट पर टिप्पणियों की रफ़्तार भी बेहद कम होती जा रही है , हमने पडताल की , कि क्या सचमुच ही ऐसा हो रहा है , लेकिन नहीं जी । कौन कहता है , आइए दिखाते हैं आपको ,  हाथ कंगन को आरसी क्या ………

 

पूजा आजकल अपने ब्लॉग पर लहरों का तूफ़ान उठाए हैं , कमाल की बिंदास शैली और दिलचस्प विषय । इस पोस्ट पर उन्होंने , अपनी ताज़ा ताज़ा हेयरकट को विषय बनाते हुए जब लिखा तो देखिए क्या कहा सबने

GunjanMay 5, 2012 07:52 AM

हा हा आहा अरे पूजा गज़ब ढा रही हो यार ... कित्ती बार कहा है ऐसी पिक्चर पोस्ट न किया करो बाबु... दिल बैठ जाता है हमारा :PPP ..... दुनिया के सारे पति एक्से ही होते हैं बच्चा........ बस पत्नियाँ अलग-अलग... छोटे,लम्बे bob कट बालों वाली.... हम्म वीकेंड में जब इक ठौ गज्ज़ब का पोस्ट मिल जाये तब कौन कमबख्त उसे नज़रंदाज़ कर सकता है.. और उस पर तुम्हारा लिखा.... हाह्ह्ह्हह्ह अब कैसे लिख कर बतायें की कित्तनी लम्बी सांस भरी है हमने तुम्हारी इस पोस्टवा पर

हम कहां पीछे रहने वाले थे ...

  1. अजय कुमार झाMay 4, 2012 09:08 PM

    ई कटिंगवा तो ठीके है मुदा ई घेंट टेढा करके तरघुइयां लुक देके ई एक आखं देखाने वाला चलचित्तर कौन हिंचिस है जी । पोस्टवा त चौचक हईये है । ...फ़ेसबुक पर लईले जा रहे हैं । का कहे ..वीक एंड पर ...अजी वीक एंडवे पर जादे पढा जाता है ...ई इंडिया है बाबू ...आते हैं फ़िन से पलटी मार के

 

जब अवधिया जी ने पूछा

चैटिंग - एक सजा या मजा

 

तो जवाब आया

प्रवीण पाण्डेय said...

ब्लैक होल है, समय भी नहीं निकल पाता है यहाँ से।

 

जब रचना जी ने नारी ब्लॉग पर कहा कि

इस उड़ान को अब रोकना संभव नहीं हैं .
 

तो इस पर आई प्रतिक्रिया देखिए 

  • indianhomemaker

    सौदी अरब में भी ६० प्रतिशत से अधिक उच्च शिक्षा की छात्र महिलाएं ही हैं.
    और बंगलौर के कई कॉलेज में लडको के लिए कट ऑफ लड़कियों से कम हैं, क्योंकि लड़कियां हर साल ज्यादा अंक ला रही हैं, इससे बहुत सी कम आय वाले वर्गों की छात्राओं को शायद दाखिला न मिल पता हो, चाहे उन्होंने घर का काम करते करते, सड़क पर यौन शोषण झेलते झेलते लड़कों से अधिक अंक पाए हों.

     

    1. रचना

      कब तक कर सकेगे ? २ साल से टॉप पर आईएस मे लडकियां हैं . सिस्टम बदल देगे धीरे धीरे वो जैसे जी टीवी पर पतंग उडाती लडकिया आती हैं लिंक खोजती हूँ

  •  

     

    छत्तीसगढ के कलेक्टर जब नक्सलवादियों के चंगुल से छूटे तो प्रतिक्रिया ऐसी हुई

    ‘यार, ये एलेक्स तो बड़ा मतलबी निकला...!’

     

    देखिए कि इस पर पाठकों ने क्या कहा

     

  •  

  • रविकर फैजाबादी

    जान बची तो लाख उपाया, लौट कलेक्टर घर को आये |
    अहमद किशन बड़े अहमक थे, बिन मतलब के जान गँवाए |
    इलेक्स रिलेक्सिंग बंगले में अब, नक्सल बैठे घात लगाए -
    किसको फुरसत है साहब जी, मौत पे उनके अश्रु बहाए ||
    बेमतलब है नीति नियम सब, नीयत में ही खोट दिखाए |
    एक तरफ है ढोल नगाड़े, दूजी तरफ मर्सिया गाये |
    अहमद किशन शहीद हुए पर, सरकार पुन: छलनी कर जाए |
    उनके दो परिवार दुखी हैं, इन गदहों को कौन बताये ||

     

  • अरूण साथी

    अतुल जी मैं आपसे कतई सहमत नहीं, यह सच है कि शहीद जवानो के परिजनो ंकी संवेदना को समझना चाहिए पर इसके लिए एलेक्स मेनन का दोष कहां है। आप भी जानते है और मैं भी कि यह सब पटाखे बाजी मीडिया के लिए न्यूज बनाने वाले हम और आप ही होते है और मेनन को बात नहीं करना उनका सदमे में होना भी हो सकता है, इतनी जल्दी कोई कौसे मौत की आगोश से लौटने के बाद उबर सकता है..

  •  

    शुकुल जी एक ठो नयका उलझन का मनोविज्ञान पर थीसिस लिख डाले जैसे ही

     

  • देवांशु निगम

    देवांशु निगम

    ये बात तो एकदम सही है , घूस देने वाले के धर्म संकट के बारे में कोई सोचता ही नहीं :) :) :)

    आजकल तो ऑनलाइन टिकट बुक कराने पर कन्विनियेंस चार्ज लगता है , हिंदी में इसे ही सुविधा शुल्क कहते हैं | अब सब ओफिसिअल मामला हो गया है |

    घूस की महत्ता का वर्णन काका हाथरसी ने भी किया है :

    कूटनीत मंथन करी , प्राप्त हुआ ये ज्ञान |
    लोहे से लोहा कटे, यह सिद्धांत प्रमान |
    ये सिद्धांत प्रमान , ज़हर से ज़हर मारिये |
    काँटा लग जाये कांटे से ही निकालिए |
    कह काका कवि काप रहा क्यूँ रिश्वत लेकर |
    रिश्वत पकड़ी जाए छूट जा रिश्वत देकर |

    रिश्वत की महिमा अपरमपार है | :) :) :) :)

  •  

     

    लगता है पिछलका दिन बाल कटाई दिन था उधर पूजा अपना हेयर इश्टाईल पे लिख रही थी त इधर बिबेक बाबू , बोले तो विवेक रस्तोगी जी ..बाल कटवाने की कवायद ठेल रहे थे , इस पर मिसर जी टीपे

     
    1. शिवम् मिश्रा

      आप भी न फुटेज बहुत खाते है ... अब यह भी कोनो बात हुआ ... इतना बड़का कहानी सुना दिये ... और बाल कटवाने के बाद ... चाँद का मुखड़ा और मुखड़े का चाँद दो मे से कुच्छो नाही दिखाये ... धत ... फोटो साटिए यहाँ एकदम ताज़ा वाला ...

       

       

      1. Vivek Rastogi

        शिवम भाई फ़ोटो कल साट देंगे ।

      2. शिवम् मिश्रा

        साला पहले मालूम होता तो कमेन्ट ही न करते ... हद है भाई साहब ... यहाँ भी उधारी ... का होगा इस देश का ...

      3. Vivek Rastogi

        अरे अभी सोते सोते का फ़ोटू आता, इसलिये कल तक के लिये उधार ही सही

      4. शिवम् मिश्रा

        अरे फोटू कहाँ है भाई साहब ... जे भी कोई बात भइ का ... हद है भई

     

    आ मिसर जी लाईट लेके रस्तोगी जी का फ़ोटो तलास रहे हैं अब तकले

     

    प्रवीण पांडे जी  ने जैसे ही ..बिग बैंग के प्रश्न ….उछाले

     

     

  • udaya veer singh

    मेरे ज्ञानी मित्र ,निःसंदेह ईश्वर ने..... पृथू का प्रश्न नैशर्गिक है ,कुतूहल वस नहीं जिज्ञासा वस ,और पृथु की जिज्ञासा हमारी सफलता है .....अलबर्ट आइन्सटीन साहब का शिखर प्रयास अबतक का उच्चतम प्रयास रहा है ......अभी तक हम अपनी उत्पत्ति का उद्दगम तलाश रहे हैं जितना पाए हैं संतुष्टि के लिए सवांश है ....बिग बैंग की थ्योरी प्रमाणिकता के आधार पर ही ग्राह्य होगी ......हमारी साधना ,हमारा मानस किस अवस्था में है कहना जल्दबाजी होगी ....../आदि गुरु नानक देव जी ने अपनी पवित्र वाणी में फरमाया है---
    " पाताला पाताल लख,आगासा आगास....."
    पृथु का यक्ष प्रश्न अनुत्तरित नहीं होगा ऐसा विश्वास है........../ वैज्ञानिक व्यावहारिक उन्नत आलेख ......बहुत -२ शुभकामनायें आपकी लेखनी व आप दोनों को...

  •  

  • veerubhai

    विज्ञान का इस कहानी में विश्वास या अविश्वास उतना ही वैकल्पिक और काल्पनिक है जितना विभिन्न धर्मों द्वारा प्रस्तुत ईश्वर की अवधारणा में।
    (1)'विज्ञान का इस कहानी में विश्वास या अविश्वास उतना ही वैकल्पिक और काल्पनिक है जितना विभिन्न धर्मों द्वारा प्रस्तुत ईश्वर की अवधारणा में।'
    (3)पृथु पूछते हैं कि बिग बैंग किसने कराया, ईश्वर ने या विज्ञान ने?
    (2)यदि आपकी गति प्रकाश की गति के समकक्ष है तो आपका एक वर्ष कम गति से चलने वाले के कई वर्षों के बराबर हो सकता है, अर्थात कम गति से चलने वाला अधिक गति से बूढ़ा होगा।
    (1)एक के बारे में इतना ही बिग बेंग के पर्याप्त प्रमाण जुटाए जा चुके ,मसलन यह सृष्टि ३ केल्विन तापमान वाली दूधिया रोशनियों में नहाई हुई है .कोस्मिक बेक ग्राउंड रेडियेशन की मौजूदगी इसकी पुष्टि करती है .बिग बेंग विस्तार शील सृष्टि का समर्थन करता है प्रमाण अधिकाँश तारों की स्पेक्ट्रम पत्ती में रेखाओं का अधिक लाल होना है ,लाल की और खिसकाव है ,जिसे रेड शिफ्ट कहा जाता है .सृष्टि में व्यापक स्तर पर अन्धेरा है इसीस खिसकाव की वजह से दृश्य प्रकाश अदृश्य की और जा रहा है .
    (२)प्रकाश की गति इख्तियार करने वाले यात्री के लिए समय का प्रवाह रुक जाएगा .वह जवान बना रहेगा .पृथ्वी पर तब तक कई पीढियां गुज़र चुकीं होंगी .
    (३)बिग बेंग आवधिक घटना है स्वत :स्फूर्त .सृष्टि बनती है बिगडती है .ऊर्जा -द्रव्यमान ,मॉस -एनर्जी का द्वैत माया है एक तत्व की ही प्रधानता कहो इसे जड़ या चेतन .द्रव्यमान -ऊर्जा एक ही भौतिक राशि का नाम है अलबत्ता इसका परस्पर रूप बदलता रहता है .घनीभूत ऊर्जा द्रव्यमान यानी पदार्थ में तबदील हो जाती है विर्लिकृत ऊर्जा रूप में अदृश्य बनी रहती है .उसके प्रभाव ही दृष्टि गोचर होतें हैं .
    आपकी इस शानदार पोस्ट के लिए बधाई .चर्चा जारी है .कृपया यहाँ भी पधारें -
    शनिवार, 5 मई 2012
    चिकित्सा में विकल्प की आधारभूत आवश्यकता : भाग – १

  •  

     

  • कौशलेन्द्र

    सारा विज्ञान सापेक्षता के स्पर्श से आलोकित हो पा रहा है। सापेक्षता के परे भी कुछ होना चाहिये ...जो होना चाहिये वह सूक्ष्मतम की ओर संकेत करता है। सांख्य दर्शन से मार्गदर्शन मिल सकता है। फ़िलहाल यह स्वीकार करने में कोई हर्ज़ नहीं है कि "पूर्ण" से अपूर्ण की उत्पत्ति हुई है ..और अपूर्ण का अंतिम विलय "पूर्ण" में ही होता है। यह "पूर्ण" हमारे य़ूनीवर्स का वह सत्य है जो दिक, काल, ऊर्जा और पिण्ड का एकमात्र स्रोत है। पाण्डॆय जी! कई बार लगता हैकि विज्ञान के आंशिक सत्य से हम सम्मोहित हो गये हैं और पूर्ण सत्य के ज्ञान से वंचित हो रहे हैं। पृथु को सांख्य दर्शन के समीप ले जाने का प्रयास उसकी जिज्ञासा के समाधान का कारण हो सकता है।

  •  

    तो चलिए आज के लिए इतना ही ….अब तो आपको यकीन हो गया न कि …यहां पोस्ट ही नहीं बंधु , टिप्पणियां भी पढी जाती हैं