शनिवार, 7 जनवरी 2012

टिप्पणियों की टोकरी



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यथार्थ की इस पोस्ट पर :-

राज भाटिय़ा ने कहा…
गरीबी कोई इलजाम नही बल्कि कुछ लालची लोगो की देन हे, जो इन गरीबो का हक मार कर खुद को अमीर कहते हे...


.
  1. ये ऐसा क़र्ज़ है जिसको अदा कर ही नहीं सकता,
    मैं जब तक घर न लौटूँ माँ मेरी सजदे में रहती है!!
    देव बाबा, अपने जश्न में हम भूल जाते हैं कि कोई हमारा इंतज़ार भी कर रहा है!!
  2. कई बार रातों में उठकर
    दूध गरम कर लाती होगी
    मुझे खिलाने की चिंता में
    खुद भूखी रह जाती होगी
    मेरी तकलीफों में अम्मा, सारी रात जागती होगी !
    बरसों मन्नत मांग गरीबों को, भोजन करवाती होंगी !

    सबसे सुंदर चेहरे वाली,
    घर में रौनक लाती होगी
    अन्नपूर्णा अपने घर की !
    सबको भोग लगाती होंगी
    दूध मलीदा खिला के मुझको,स्वयं तृप्त हो जाती होंगी !
    गोरे चेहरे वाली अम्मा ! रोज न्योछावर होती होंगी !
    सतीश सक्सेना जी की पोस्ट पर :-

    संतोष त्रिवेदी said...
    पूज्य पिताजी हेतु समर्पित अंतर के हैं भाव आपके'
    उनकी नसीहतें,उनकी चिंता,याद हमेशा आती हैं.

    उनकी निंदिया रोज़ चुराई ,उसकी क्या भरपाई होगी,
    उनके कामों को करके ही ,मुक्ति आपको पानी होगी !


    .....आपने अपने बहाने हर किसी को उसके पिता की याद दिला दी !



    लहरें की इस पोस्ट पर :-


    देवांशु निगम said...
    "वीर" ने एक दिन माँगा था "ज़ारा" से , ऐसा ही एक दिन माग लिया "छवि" ने "असित" से| मांग लिया तो मांग लिया,प्यार भी हो गया, प्रपोज़ भी किया , शादी भी हो गयी| और शादी को २५ साल भी |
    ये जो कहनियाँ दुबारा से वापस आती है, जहाँ पे पिछली बार रुकी थी वहाँ से (कुछ कुछ कोलाज की तरह), ये मुझे बहुत अच्छी लगती हैं | "लव आज कल" , "ऊट-पटांग" और "रॉकस्टार" इसीलिए मुझे बहुत पसंद है| अब ये कहानी भी मेरी पसंदीदा में शामिल हो गयी |

    फिर से प्यार करवा दिया... :) :) :)
    मृदुला जी की इस पोस्ट पर :-

    रेखा श्रीवास्तव said...
    कहाँ से चले थे और कहाँ पहुँच गए? अरे अपने तो सही ही कहा था उसके दूसरे हाथ में कलम जाते ही अर्थ बदल गए. क्या ऐसा
     ही होता है? नहीं तो हम सब एक जैसे ही होते हें. फिर भी दूसरी जबान से कुछ कहे जाते हें.


    Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...
    वाह मालिक... शादीलाल की दुकान याद दिला दी और वो ५ रूपये में एक घंटे का वीडियोगेम.. :)


    Rahul Singh ने कहा…
    on 
    मुझे ध्‍यान आता है कि छत्‍तीसगढ़ के जयदेव बघेल जी और सोनाबाई जी, दो ही शिल्‍पी हैं, जिन्‍हें शिल्‍प गुरु उपाधि मिली.
    बघेल जी की याददाश्‍त और किस्‍सों के बदौलत वह अपने इर्द-गिर्द ऐसा संसार रच देते हैं, जिसमें आप उनकी उंगली न पकड़े रहें तो भटक ही जाएं.
    (गड़वा, सामान्‍यतः घड़वा उच्‍चारित होता है.)




     मनोज जी की इस पोस्ट पर :-



    चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…
    मनोज भाई!
    आजकल आप "फुर्सत में" बच्चा लोग को घर पर छोडकर भागे रहते हैं... अब समझ में आया कि बच्चे जब बड़े हो जाएँ तो अपना यौवन लौट आता है.. अब देखिये न.. पार्क स्ट्रीट, कैमक स्ट्रीट, क्वींस मैन्शन सब घुमा दिए कल्ले-कल्ले.. तभी तो हो गयी है बल्ले-बल्ले और आप ऊ ला ला करते हुए मस्त हैं..
    नया साल में नया फलसफा लेकर आये हैं..मौत से किसकी रइश्तेदारी है/आज उसकी तओ कल हमारी बारी है.. मगर नीचे बैठने वाले से सावधान.. जरूरी नहीं कि वो इसलिए बैठा हो कि उसे और गिरने का डर नहीं.. बल्कि गौर से देखियेगा तो पता चलेगा कि उसकी निगाह सबसे ऊंची जगह पर है..! मज़ा तो तब है जब दुनिया के शिखर पर ऐसे बैठे मानो फुटपाथ पर बैठे हों!!!
    नया साल आपके जीवन में ऊ ला ला बरकरार रखे यही शुभाकामना है...!और आप फुर्सत में बने रहें यही आशा है!!



    संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…
    हम फुटपाथिए भी तो उन्हें छोटे ही नज़र आ रहे होंगे – हां देखने का नज़रिया होता है – दो तरह का --- दो तरह से चीज़ें देखने में छोटी नज़र आती हैं --- एक दूर से --- दूसरी गुरूर से!

    उ ला ला के साथ इतनी गहन बात ? फुर्सत में काफी कुछ सोचने की मिल जाता है .. साधू की बात सटीक है नीचे बैठने वाले को गिराने का अंदेशा नहीं रहता ..



    नीरज गोस्वामी ने कहा…
    वो बोलता है, --- बच्चा ! यह बात याद याद रखो। ... नीचे बैठने वाला कभी गिरता नहीं!

    वाह...क्या अद्भुत रचना है...लाजवाब. मुझे महान फिल्म मुगले आज़म का वो सीन याद आ गया जिसमें शेह्ज़दा सलीम "तेरी महफ़िल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे..." गीत /कव्वाली वाले मुकाबले में हारने वाली अनारकली को गुलाब के फूल के बजाय उसके कांटे उपहार में देता है जिसे लेकर वो मुस्कुराते हुए कहती है "शुक्रिया शेह्जादे काँटों को मुरझाने का खौफ नहीं होता"

    नीरज


    Vaanbhatt ने कहा…
    ऊ ला ला...ये चैनल वाले भी उलटे-सीधे गीतों को इतना सुनते हैं...कि धीरे -धीरे पुराने गीतों के शौक़ीन भी इन्हें गुनगुनाने लगते है...भप्पी दा, जो ना सुनवाएं वो कम...लगता है भाभी जी ने मूवी नहीं देखी...वर्ना नए साल में चाय भी ना मिलती...



    चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...
    काश! यह स्क्रिप्ट रामगोपाल वर्मा देख लेता तो असफलता का मुंह तो न देखना पड़ता :)
    दीपक बाबा said...
    पता नहीं ... नहीं जानता ..

    लेकिन एक बात जानना चाहता हूँ,

    गब्बर कब मरेगा..
    शोले कब खत्म होगी..

    कोई नहीं जानता..
    यही इस फिल्म की विशेषता है..
    हर देश काल में फिट बैठती है..

    बदिया लगया व्यंग.
    साधुवाद.
    प्रवीण पाण्डेय said...
    बाप अभी तक ऑर्कुट पर, क्या जमाना आ गया है..
    गिरीश said...
    ट्वीटरगढ़ के शोले ... यह पोस्ट आप को अपने सारे ट्विटर फालोअर्स
    को समर्पित करना चाहिये ..जो लोग ट्विटर के चाल चलन से
    परिचित हैं, वो कही न कही अपने आप को खोजेगे इस पोस्ट में..
    .....आनंद आ गया|
    अतुल प्रकाश त्रिवेदी said...
    वाह मिश्रा जी दूसरी बार किसी ब्लॉग पर शोले की नई पटकथा पढ़ रहा हूँ . वैसे भी आपका हक है सलीम-जावेद की तर्ज़ पर आपका ब्लॉग भी शिव-ज्ञान की जोड़ी शैली में है.

    मैं तो सोचता ही रहा की त्वरितर पर हिन्दी ब्लॉगवाले सक्रिय हूँ . पंचम जी तो एक ट्वीट कर वापस ही नहीं आये . और अब जब आपने त्वरितर का इतना महात्म्य लिख दिया और यहाँ इतने बड़े बड़े त्वरितर की परिभाषा के अनुसार हिंदीब्लॉग के सेलेब्रिटी हैं तो अवश्य अब आप और ज्ञान जी की तरह और भी हिंदी के सेलेब्रिटी Occupy Twitter कर लेंगे
    भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...
    ये तो कालजयी है.
    Abhishek Ojha said...
    वाह वाह ! गजब है ये तो.
    अनूप शुक्ल said...
    क्या बात है! इस पर तो पूरी पिक्चर बननी चाहिये। :)


    चलिए आज तो टिप्पणियां का टोकरिया आपके हवाले डायरेक्टली कर दिए हैं , लेकिन कल से ......जी बिल्कुल ठीक समझे

    टिप्पी पर टिप्पा धरेंगे .......जय जय सिया राम ।